औरत का सफर
सोचती हूं कभी-कभी
क्या यही है औरत का सफर ,
कभी बेटी, कभी बहन, कभी पत्नी, कभी माँ बनकर
देती रहे परीक्षा जिंदगी की
हर राह, हर मोड़ पर
बेटी बन बाप के साए चले,
बहन बन भाई की आँखों से डरे
सोचती जब बीवी बनूंगी तब आजादी पाऊंगी
अपने फैसले ,अपनी दुनिया , अपनी राह बनाऊंगी
पर क्या इतनी आसान होती है जिंदगी की डगर!
जब आती किसी की बीवी किसी की बहू बनकर
गलतियाँ होने पे सुनना पडता है ये उसको अक्सर
सास कहे ये तुम्हारा ससुराल है , मायका नहीं
माँ कहती ये तुम्हारा मायका है , अपना घर नही
पिसती रहे इन दो घरों के बीच
कभी बेटी, कभी बहू बनकर।
माँ बनकर सोचती अब अपने भी कुछ अधिकार होंगे
जिस बेटी को जन्म दिया उसमें मेरे संस्कार होंगे
नाजों से पाल-पोस कर जिस बेटी को बडा किया जाए
फिर उसे भी किसी और के हाथों सौंप दिया जाए
फिर शुरू होता है एक औरत का अनजाना सा सफर
क्या यही होता है हर औरत का मुकद्दर !
प्रिया वच्छानी
बहुत अच्छी कविता, प्रिया जी. आपने एक महिला के जीवन का अच्छा खाका खींचा है.
शुक्रिया विजय जी