लघु उपन्यास : करवट (चौथी क़िस्त)
ठाकुर साहब ने कहा कि शहर में पहुँच कर मानसी बुआ के यहां इन्द्रानगर में चले जाना और वहाँ पहुँचने के लिए पता दिया। बैलगाड़ी अपनी मध्यम चाल से चली जा रही थी, उसमें बैठे रामकुमार का मन जीवन में कुछ नया करने और पाने की आस में कड़कती बिजली की भांति गतिमान था। धनुवा बैलगाड़ी की खनकती हुई घंटी के साथ में गुनगुनाते हुए जीवन को गति दे रहा था। उसके होठों से रसीले शब्द फूट रहे थे-
इत, उत डगर जिन जारे मोरे बरधा,
बिच्चै मा बनी डगरिया तोहार बा,
ऊंच खाल से जिन डराये मोरे बरधा,
अगवा के रहिया त समतल तोहार बा, होर..र..र..र.. ना..ना..ना..नारे।
मोरे दुलरवा क छूटत दुआर बा,
शहर में रहे के आन के दुआर बा,
छूटत बा माई-बाप के दुलार बा,
भटकिह जिन तूही बचवा हमार बा, होर..र..र..र.. ना..ना..ना..नारे।
बगिया के ओह पार टिरेनवा तोहार बा,
ऐह पार माई-बाप के असरा तोहार बा,
जाइके शहर जिन बिसरिह रे रमुआ,
हमहने के तोहरै ही बाट के निहार बा, होर..र..र..र.. ना..ना..ना..रुक।
बैलगाड़ी रेलवे स्टेशन के सामने रुक जाती है। रामकुमार पिता के साथ जा कर टिकट लेता है। तभी रेलगाड़ी आती दिखायी पड़ती है। रमुआ अपने पिताजी के पैर छूता है और रेल में बैठ जाता है। रेंगती हुई रेलगाड़ी रमुआ को माता पिता से दूर ले जाती है।
धनुवा बेबस और बोझिल मन, बैलगाड़ी की डोरी हाथ में पकड़े हुए। दूर आकाश के बीच केसरिया बाना और स्लेटी बादल की डोर, नारंगी रंग की सूरज की किरणें बैलों के मुख पर गिर रही थी। धीरे-धीरे गोधूलि भी मध्यम पड़ती जा रही थी। धनुवा ने बैलगाड़ी की रखी लालटेन को जला कर रास्ता देखने के लिए तैयार किया। उधर रधिया भी घर के दरवाजे के बगल की ताख पर तेल की कुप्पी को जला कर धनुवा की बाट देखने लगी। रुक-रुक कर सावन की फुहार की तरह ही रधिया के आखों में आंसू आ जाते थे।
धुँधलाती आखें चकरोट की राह पर ही टिकी थीं। अंधेरों को चीरती हुयी हिलती-डुलती लालटेन की रोशनी को देख थोड़ी खुश हुयी और पास आने का इन्तजार करने लगी। ये इन्तजार पलक झपकते ही समाप्त हो गया। बैलगाड़ी को नन्दू के दरवाजे पर बांधकर धनुवा सीधे हमेशा की भांति खाट पर निढाल हो कर लेट गया। रधिया लोटे में पानी भरकर लायी और वहीं पर नीचे बैठकर पैरोें को धोकर पोछने लगी। मां के कलेजे की छटपटाहट को समझकर धनुवा ने रास्ते की सभी बातें उसको कहकर खाना लाने को कहा। खाना खाकर दोनों खाट पर लेटकर सोने की कोशिश करने लगे।
इधर रेलगाड़ी में बैठने के बाद रामकुमार खिड़की से बाहर देखते हुए एक अलग दुनिया में खो गया था। उसकी ओर टी.टी ने कई बार आवाज लगायी, लेकिन जब बगल में बैठे यात्री ने उसको हिलाया तो रामकुमार ने टिकट दिखाया और एक बार फिर से अपने ख्वाबों में खो गया। आखिर जब पटरियों से पटरियों को निकलते देखा और एक पटरियों का बड़ा सा जाल सा बिछाता जा रहा था। ऐसा देख उसको महसूस होने लगा कि कोई बड़ा स्टेशन आने वाला है और धीरे से एक प्लेटफार्म को रेलगाड़ी ने पा लिया, जिस पर ‘लखनऊ जंक्शन’ लिखा था।
प्लेटफार्म पर गाड़ी से उतरने पर नये चढ़ने वालों और उतरने वालों के बीच में होने वाली टकराहट को देख कर उसको बड़े शहर होने की आकृति बनने लगी। प्लेटफार्म से चलते हुए पुल पर चढ़ना और पुल को पार करके स्टेशन से बाहर आने में उसको भीड़ के दबाव में कदमों को बढ़ाने नहीं पड़े, बल्कि उसको शरीर को सम्हालने में ही कदम खुद ही बढ़ते गये और वह कब बाहर आ गया पता भी नहीं चला। खुद को सम्भालकर ठाकुर साहब द्वारा बताये पते के अनुसार साधन पकड़ कर शहर के एक छोर पर रहने वाली मानसी बुआ के घर पर पहँुच गया।
मानसी बुआ के परिवार में उनके पति राघवेन्द्र सिंह, उनके दो बेटे शंकर और अमर तथा एक बेटी पूजा रहती थी। मानसी का मकान काफी बड़ा था। मानसी बुआ पर भी उसके भाई राजेन्द्र सिंह की काफी छाप थी। रामकुमार ने मानसी और उसके पति राघवेन्द्र का चरण स्पर्श किया, जो रामकुमार को देख कर काफी प्रसन्न हो रही थी। मानसी बुआ की प्रसन्नता की एक वजह यह भी थी कि रामकुमार उसके मायके से आया था और उससे उसे अपने मायके का सारा हाल मिल रहा था। रामकुमार द्वारा बुआ के लिए गांव से लाये हुए आम के अचार और भुने हुए दानों से भरी पोटली ने बुआ की गांव की याद को ताजा करते हुए कल्पना को साकार कर दिया।
जारी…
धन्यवाद विजय सिंघल जी भाई साहब
कहानी का यह अंश भी बहुत मार्मिक है. राम कुमार अपनी मेहनत और ठाकुर साहब के समर्थन से अपनी जिंदगी किस प्रकार संवार पाता है, यह देखना है.