शायद ये सफ़र यहीं तक था
राह हमारी अलग हुई अब
शायद ये सफ़र यहीं तक था।
साथ चलेंगे बातें की थी
अनजाने से अनजाने में
आँख खुली तो देखा पाया
छुपकर निकले बेगाने से।
शायद ये सफ़र यहीं तक था॥
दिन भी निकला रातों जैसा
आँखों में कोई रतौंधी सी
हाथों से छूकर जब देखा
काली पट्टी बंधी निकली।
शायद ये सफ़र यहीं तक था॥
© राजीव उपाध्याय
कविता अच्छी है, भाव भी.
बहुत-बहुत धन्यवाद