उपन्यास अंश

लघु उपन्यास : करवट (सातवीं क़िस्त)

karvat

दिव्यशक्तियों सी अनुभूति कराने वाला, धूल धूसरित रहने वाला रमुवा, सफेद ऐप्रन पहनकर आला गले में शिवशक्तियुक्त, गांव और पूरे पंचायत का मसीहा बन कर सभी की उम्मीद का डाक्टर रामकुमार अपने कहरान की ओर देवता सा आ रहा है। नन्दू का बेटा किसना बचपन के दोस्त को लेने के लिए धनुवा और रधिया को बैलगाड़ी से और गांव के लोग अपने अपने साधन से डा. रामकुमार को लेने के लिए स्टेशन पर पहुँचे।

स्टेशन का नज़ारा कुछ ऐसा था कि चारों ओर रामकुमार को देखने वालों का तांता सा लग गया कि कल का रमुवा आज का डा. रामकुमार देखने में कैसा लगता है। स्टेशन के अन्य सभी लोग ये सोचने पर मजबूर हो गये कि आज उत्सव सा माहौल इस छोटे से स्टेशन पर किसलिए है। ठाकुर साहब भी वहां जाना चाहते थे क्योंकि वे देखना चाहते थे कि उनके अरमानों का किस तरह से स्वागत हो रहा है। मगर अपने गठिया के कारण से नहीं जा पाने का ऐसा दर्द पी रहे थे जिसने उनको नहीं जाने दिया।

जिस स्टेशन पर कभी कभार ही भीड़ होती थी आज वहां पर काफी मात्रा में लोग थे। स्टेशन मास्टर भी हैरान थे। दूर से रेलगाड़ी के आने की आवाज पर ही लोगों का कौतुहल बढ़ गया था। धीरे-धीरे रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर रुकने लगी। रामकुमार स्टेशन पर भीड़ देखकर सोचने लगा कि आज यहां पर इतनी भीड़ क्यों है? परन्तु उसे नहीं पता था कि यह भीड़ उसके स्वागत में ही है। पर जैसे ही वह उतरा तो उसको किसना, धनुवा और रधिया भी दिखायी पड़े। जब तक वह समझता तब तक तो सभी चेहरे अपने परिचितों के दिखने लगे। उसने दौड़कर मां और पिता के पैर छूकर प्रणाम किया। साथ ही गांव से आये सभी वृद्वजनों को प्रणाम किया और अपने किसना को तो गले ही लगा लिया। वह जानता था कि उसके न रहने की स्थिति में किसना ही उसके मां और बाप के लिए बेटे जैसा था। फिर बैलगाड़ी पर बैठ गांव की ओर रवाना हो गया और उसको लाने वाली रेल रेंगती हुए आगे की ओर रवाना हो गयी।

किसना की बैलगाड़ी ग्राम देवता के दरवाजे के सामने पहुंची तो रमुवा ने रोकने को कहा और उतरकर मंदिर पर दण्डवत प्रणाम किया। फिर किसना को सीधे ठाकुर साहब के घर पर बैलगाड़ी ले चलने को कहा। ठाकुर साहब को देखकर रामकुमार ने सबसे पहले उनके पैरों को छूकर प्रणाम किया और मानसी बुआ के हाल-चाल से अवगत कराया। साथ-साथ उनके पैरों को दबाता रहा ठाकुर साहब को जिस सुख की अनुभूति हो रही थी, उसका कोई पैमाना नहीं था। ठाकुर साहब से विदायी लेकर अपने दरवाजे पर पहुंचा और जब अपनी खाट पर बैठा, तब जा कर कमर को सीधी करने पाया।

अगले दिन सुबह की किरणें उसको फिर नयी प्रेरणा के साथ जिन्दगी को प्रारम्भ करने की करवट दे कर जगाती है। वह नाश्ता करके अपनी रामपुर बाजार की जमीन की ओर चल पड़ा। वह एक किसान की भाँति ही समाज की बीमारियों पर हल चला कर एक स्वस्थ समाज की फसल उगाने की ओर निकल पड़ा। बाजार मेें पहुँच कर कुछ मजदूरों को लेकर अपनी जमीन पर ‘राधा चिकित्सा सदन’ की बुनियाद डालने के कार्य को प्रारम्भ कर दिया। लोगों ने भी उसको जी भर कर सहयोग दिया।

राधा चिकित्सा सदन के दोनों ओर एक एक आधार स्तम्भ बनवाया, जिसमें दोनों ओर बड़े-बड़े कलश, उनमें से पानी का बहता हुआ झरना बना, जो इनके कहरान होने की पहचान को दर्शाता और शुभ कर्मों का सूचक कलश भी था। उसके बाद झोपड़ीनुमा डा. रामकुमार के बैठने और मरीजों को देखने का कमरा बना और उसके बाद मरीजों के लिए उच्चकोटि के बेडरूम की सुविधा, साथ में देखभाल करने वालोें की रहने की सुविधा का भी ध्यान रख कर तैयार करवाया जा रहा था। तारीफ यह कि अस्पताल के निर्माण के साथ-साथ डा. रामकुमार ने मरीजों को देखने का कार्य भी प्रारम्भ कर दिया था। बस अस्पताल के उद्घाटन का कार्य ही बाकी रह गया था।

डा. रामकुमार का अस्पताल शीघ्र ही अपनी सेवाओं और इलाज के लिए दूर-दूर तक नाम कमाने लगा था। अब बारी थी राधा चिकित्सा सदन के उद्घाटन की। कहरान गांव (आशापुर) से लेकर रामपुर बाजार तक रास्ते भर जगह-जगह पर तोरण द्वार बने। अस्पताल के मुख्य द्वार पर एक बड़ा सा टेन्ट लगा हुआ था। सुन्दर से सजे हुए पंडाल की शान को लोग दूर से देखने आ रहे थे। डा. रामकुमार आज काफी व्यस्त थे। सुबह सो कर जब उठे तो अपने माता-पिता को नये कपड़े पहनने के लिए दिये। रधिया ने नई-नई साड़ी पहनी, धनुवा ने एक सुन्दर सा कुर्ता पहना, जिस पर कढाई का काम था। हमेशा गमछा वाले कन्धों पर आज एक लम्बा सा दुपट्टा था।

अपने माता पिता को तैयार करने के बाद वह ठाकुर साहब के घर पहुँचा वहां ठाकुर साहब को उनके मान के अनुकूल कुर्ता, दुपट्टा और पगड़ी दे कर तैयार करवाया। ठाकुर साहब के पैरों से न चल पाने के बात को ध्यान में रखकर उसने एक कार की भी व्यवस्था कर रखी थी। सबको निमंत्रित करके रामपुर बाजार पहुँचकर वहां की व्यवस्था का जायजा लिया।

राधा चिकित्सा सदन के प्रमुख द्वार पर रधिया, धनुवा, रमुवा और ठाकुर साहब के आने का उपस्थित लोग जैसे प्रधानाचार्य जी, प्राइमरी पाठशाला के गुरुजी, शहर के गणमान्य अतिथि और गांव के सभी लोग बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे। तभी कार आती दिखायी पड़ी। सभी खुशी से उछल पड़े। एक स्वर उठा कि ठाकुर साहब आ गये।

जारी…

2 thoughts on “लघु उपन्यास : करवट (सातवीं क़िस्त)

  • विजय कुमार सिंघल

    मेहनत और बड़ों के आशीर्वाद का फल अवश्य मिलता है. यह कहानी यही सिद्ध कर रही है. बहुत श्रेष्ठ भावना.

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