गीतिका
तेरी चाह में कुछ कर जाऊं तो अच्छा
यूं तनहा जीने से मर जाऊं तो अच्छा
जब माली ही न रहा इस गुलशन का
टूट शाख से बिखर जाऊं तो अच्छा
प्यार तेरा न पा सका, कोई बात नहीं
तेरी यादों संग ही तर जाऊं तो अच्छा
बदल सकी न जो लकीर इन हाथों की
उस मेहंदी को बिसर जाऊं तो अच्छा
जिस राह से मिल सके न मंज़िल कोई
उसमें खा ठोकर गिर जाऊं तो अच्छा
रास नहीं आ रही है आबोहवा शहर की
लौट फिर से गाँव घर जाऊं तो अच्छा
बहुत अच्छी ग़ज़ल है , बार बार पड़ने को दिल करता है . आगे भी इंतज़ार रहेगा .
आदरणीय गुरमेल सिंह भमरा लंदन जी आपकी स्नेहिल उपस्थिति एवं प्रेरक टिप्पणी करने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत अच्छी ग़ज़ल !
हार्दिक अभिनंदन…सराहना के लिये सादर आभार