गिरवी
कॉलेज ख़त्म होने का आखिरी दिन, सभी लोग एक दूसरे से विदा ले रहे हैं. गले मिल रहे हैं. अपना फ़ोन नंबर बदल रहे हैं. एक दूसरे को भविष्य में न भूल जाने का प्रण ले रहे हैं. कहीं खुशियों के मारे लोग उछल कूद कर रहे हैं, तो कहीं आखों से आंसूं रुक नहीं रहे हैं. एक ओर दोबारा मिलने की ख़ुशी है, तो एक ओर दूर जाने का ग़म सता रहा है. सब मग्न हैं. अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं. तभी भीड़ में आवाज़ आती है, अब क्या करना चाहते हैं, आप लोग…??? चिल्लाहट सुनकर सब यहाँ वहां देखने लगते हैं. तभी भीड़ से बाहर निकलता सुरेश सबको दिखाई देता है.
“आ गया साला फिर से मज़ाक उडाएगा हमारा”
चार दोस्तों के बीच में खड़े सुनील की खुसफुस सुनाई देती है. यह डायलॉग सुनील ने सुरेश के आने पर बोला. “मज़ाक उडाएगा…”
पहले तो मुझे भी समझ में नहीं आया. क्योंकि मैं कभी भी सुरेश से बोला चाला नहीं था. मुझे अपने से बहुत काम थे तो जरुरत नहीं थी. दूसरों के काम लेने की. वहीँ सुरेश के सवाल के जवाब आने लगे.
“मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ.” एक लड़की ने चिल्लाकर कहा.
वहीँ कोई कह रहा था. “मैं सिपाही बनना चाहता हूँ.”
“मैं समाज सेवा करना चाहता हूँ”
“मैं फौज में जाना चाहता चाहती हूँ.” सभी का अपना अलग-अलग लक्ष्य है.
जो उनकी आँखों में साक्षात् दिख रहा था. पर मेरा लक्ष्य कुछ नहीं था उस समय तक. बस मैं तो इस मज़ाक उड़ाने वाले व्यक्ति के बारे में सोच रहा था.
“आखिर ये क्या करेगा…?”
सब उसे अपना लक्ष्य बता रहे थे. पर मैं भीड़ से निकलकर, उसके पास पहुंचा और मेरा पहला सवाल था,
“तुम क्या करोगे भाई…?”
“सबका तो पूछ रहे हो, अपना भी तो बताओ,” तो उसका सबसे अलग जवाब आया.
“मैं सोच भी नहीं सकता था कि कॉलेज का सबसे शरारती लड़का, जो मात्र सबकी खिंचाई करनी जानता है. वो ऐसा भी जवाब दे सकता है…!!!”
उसने मुझसे कहा, “मैंने कुछ समय पहले राजस्थान के एक गाँव के बारे में सुना था, वहीँ, उसी सच्चाई को जानने के लिए जाउंगा…”
“और हाँ मैं कल ही निकल रहा हूँ.”
इससे पहली की मैं उससे दूसरा सवाल करता उसने मुझसे कहा मुझे पता है तुम मेरे साथ चलोगे, कल सुबह 7 बजे नई दिल्ली,
“मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा.” मैं हक्का बक्का रह गया, उसकी बातों को सुनकर, मेरे कंठ से मनो जैसे मेरी जीभ नीचे उतर गई हो, कोई जवाब नहीं था मेरे पास उसे देने को. बस यही सोच रहा था कि,
“आखिर उसे कैसे पता जो कहानी मैं न जाने कब से खोजना चाहता हूँ.”
“आखिर कैसे…?”
तभी उसके एक दोस्त ने मेरे पास आकर मुझसे कहा,
“वो भी तेरी ही तरह बहुत सीरियस रहने वाला, लोगों के बारे में सोचने वाला. उनकी चिंता करने वाला है.”
पर बस दिखाता नहीं है, कभी को नहीं चाहता मुंह फुलाकर घूमना, हंसना चाहता है, और सबको हंसाना चाहता है. पर सोचता है बिलकुल तुम्हारी ही तरह है.
“मैंने ही उसे तुम्हारे बारे में बताया था.”
“तभी उसने मुझसे कहा था, इसे भी लेकर चलेंगे हम जब भी राजस्थान जायेंगे…?”
मई का महीना था. सुबह के 7 बजे भी गर्मी अपने चरम पर थी. रिजल्ट इन्हीं दिनों में आता है. मैं उन दोनों से ट्रेन निकलने से पहले ही नई दिल्ली मिल गया. बातें होती रही, वह मेरे बारे में जानना चाहते थे, और
“मैं केवल उसके बारे में जिसका नाम सुरेश था…!!!” मेरा टिकेट भी उन्होंने पहले ही करा रखा था. ट्रेन प्लेटफोर्म पर आई. और घोषणाओं का सिलसिला आरम्भ हो गया, हम कुछ दूर पर थे परन्तु ट्रेन जाने में अभी समय था. तो हम टहलते हुए वहां पहुंचे. और अपनी-अपनी सीट पर जाकर बैठ गए, सुरेश अपनी मज़ाक में ही लगा था. डब्बे में बैठे हर व्यक्ति को वो बैठते ही परेशान कर चुका था. सब समझ गए थे कि वह उनको राजस्थान तक परेशान करने वाला है. पर
“मैं उसे समझने की कोशिश कर रहा था.”
“आखिर वह अपने मनोरंजन के लिए वहां जा रहा है. या वाकई वह वहां की दशा को जानना समझना चाहता है.”
“ट्रेन चल पड़ी.”
“रास्ते में हमने, देखा की पटरी के अगल बगल में खेत खलियान जैसे मानों हमारा स्वागत कर रहे हों. बाहें फलाये, तरह तरह की आकृतियों वाले पेड़, खेतों में अलग अलग जैसे नक़्शे बने हो, पानी भरा हो, नदियाँ, बाँध…!!! हम तीनों बहुत खुश थे. और अब मंजील बहुत करीब थी. हम अपने अपने पैर सीधे करने में लग गए, क्योंकि अब जल्दी ही उतरना था. रेत का संसार जैसे हमें अपने समा लिए जाने को बेताब खड़ा था. हमने इससे पहले रेत का इतना विशाल समंदर कभी नहीं देखा था. जहां तक भी नज़र जा रही थी वहीँ तक बस रेत ही रेत था.
तभी सुरेश के दोस्त मोहन ने कहा, “अबे भाई कहाँ आ गए हैं हम…!!!”
“ये तो साला सोल्जर फिल्म जैसा नजारा है.”
“आखिर ये राजस्थान में कहाँ पड़ता है…!!!” और
“बात को जयपुर जाने की हुई थी ये क्या है भाई…?” उसके सवाल बढ़ते ही जा रहे थे. तभी सुरेश ने बस एक ही जवाब दिया.
“अबे पहुँचने वाले हैं बे”
“बस अब बस से 2 घंटे और लगेंगे” सुरेश ने मजाकिया अंदाज़ में कहा.
“भाई क्या हम बाबा आदम के जमाने में जा रहे हैं” सुरेश के दोस्त में सवाल किया.
“मैं तो केवल उन दोनों की लड़ाई देख रहा है”
“पर इस बार मुझे सुरेश के अन्दर एक चाह दिख रही थी जो अब तक नहीं दिखाई दी थी.”
हम स्टेशन पर उतरे और जैसे ही बाहर गये. वहां अपने अपने तांगे लिए खड़े गाँव वाले मानो हमारे पीछे लग गए. मानो उनके लिए उस बियाबान जंगले में कोई उन्हें बचाने वाला आ गया हो.
“रेत का कहर था वहां” चारों ओर रेत ही रेत बस…रेत
और दूर दूर तक कुछ नहीं था. सड़क के नाम पर केवल एक कच्चा रास्ता था जो हमें अपनी मंजिल तक पहुंचाने के लिए काफी था. एक तांगे वाला आकर हमसे कहने लगा
“कहाँ जाना चाहते हैं मालिक”
वहां के लोग शायद इस शब्द का ज्यादा इस्तेमाल किया करते थे… या कह सकते हैं कि करते हैं.
“सुरेश ने कहा भाई तू जगह पूछ रहा है या हूल दे रहा है.”
उस तांगे वाले का स्वभाव ही कुछ ऐसा था. उसने कहा
“न मालको मैं तो तने थारी मंजिल तक ले जाने की बात केरा हूँ.”
“चलो भाई हाँ चलो, हमें बस स्टैंड पर छोड़ दो” सुरेश ने उसकी बातों को थोड़ा समझते हुए जवाब दिया.
“चालो मालको चालो” तांगे वाले राम सिंह ने उन्हें तांगे में बैठने का इशारा करते हुए कहा.
“अरे दाम क्या लोगे भाई” सुरेश ने राम सिंह से पूछा”
“क्या मालको वाजिब ही दाम लूंगा, चिंता ने करो” राम सिंह ने जवाब दिया.
“फिर भी कितना” सुरेश ने पूछा.
“अब का मांगे मालको, 10 रुपये दे देणा तीना के” राम सिंह ने शर्माते हुए कहा, मालको महँगाई बढ़ गई है इसलिए थारे से 10 रुपया मांगे है, न तो 5 में जाऊ हूँ.
“क्या…” उसका इतना कम किराया सुनते ही मेरे मुंह से केवल इतना ही निकला
“बस दस रुपये” सुरेश के दोस्त ने भी आश्चर्य से भरकर पूछा.
“अरे देखते जाओ अभी क्या क्या नया देखने और सुनने को मिलता है” सुरेश ने तांगे में बैठते हुए कहा.
मैं समझ नहीं पा रहा था. आखिर इतनी महंगाई के दौर में भी इतना सस्ता किराया. “आखिर कैसे…?”
“क्या ये लोग मुख्यधारा से अभी भी काफी दूर हैं.” ये सवाल मेरे जहन में बार-बार आ रहा था. साथ ही क्या 10 रुपये में इन लोगों का घर चल जाता है, यहाँ तो जल्दी से कोई आता भी नहीं होगा और तांगे वाले बहुत हैं. मेरे इतने सोचते सोचते ही मुझे एक आवाज़ सुनाई दी.
“अरे भैया राम सिंह कितना दूर है ये बस स्टैंड यहाँ से और वहां से राम पुर गाँव” ये आवाज़ और सवाल सुरेश का था.
तब मुझे पता चला हम राम पुर गाँव जा रहे हैं.
“हाँ… मालको यहाँ से बस स्टैंड होगा लगभग 4 किलोमीटर और रामपुर 2 घंटे और” राम सिंह ने जवाब दिया.
“ये कौन सी जगह है” मैंने सवाल किया.
“मालको ये है किरीट पुर” राम सिंह ने पीछे देखते हुए कहा.
इन्हीं सवाल जवाबों में हम बस स्टैंड पहुँच गए और राम पुर के लिए बस भी हमें उसी समय मिल गई. अगर ज़रा ही लेट होते हो शायद बस नहीं मिल पाती और हमें रात यहीं राम सिंह के घर गुजारनी पड़ती.
सुरेश के दोस्त ने हंसकर कहा, “चलो बच गए मालको से”
बस में बैठे टिकेट लिया और चल दिए उस अंजाम राह पर जिसे शायद मैं और सुरेश तो जानते थे, पर सुरेश का दोस्त एक फ़िल्मी दोस्त की भूमिका निभा रहा था, जो अपने दोस्तों के साथ बिना कुछ जाने कुछ समझे बस चल पड़ते हैं. पर था बड़ा इमानदार और हंसमुख.
धीरे धीरे गंतव्य हमारी ओर आ रहा था, मैंने कंडेक्टर से पूछा, “भाई राम पुर कितनी दूर है”
“बस 15 मिनट में पौंहच जावेंगे मालको…” कंडेक्टर ने जवाब दिया.
सुरेश के दोस्त ने सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “यार फिर मालको”, ये मारेंगे भाई.
आखिर हम आ ही गए रेत के समंदर को हमने पार कर ही लिया, अब पहाड़ के किनारे बसे एक छोटे से गाँव में आ पहुंचे.
और यहाँ हुकूमत चलती थी एक रजवाड़े परिवार की, जो सदियों से यहाँ हुकूमत करता आ रहा था. पूरे गाँव को अपने चंगुल में ले रखा था इस परिवार में. इसके प्रकोप से कोई नहीं बचा था एक छोटा बच्चा भी नहीं, फिर चाहे वह लड़की हो या लड़का.
अचम्भा इस बात का था कि आज भी यह सब होता है. आज भी रजा रजवाड़े हुकूमत करते हैं. इस गाँव के बारे में काफी पढ़ा था, सूना था और बहुत दिनों से यहाँ आकर देखने की ललक थी कि जो कुछ पढ़ा है आखिर सच भी है कि ऐसे ही किसी ने हमें चला दिया है.
गाँव के बाहर हमें एक नौजवान मिला… “अरे सुणो मालको” सुरेश के दोस्त ने उसकी ओर बढ़ते हुए उसे पुकारा. ये लड़का बहुत जल्दी ही इनकी भाषा को सीख चुका था.
हाँ… बताओ जी “कहाँ जाणा है तने.” उस नौजवान ने जवाब देते हुआ पूछा.
अब उनसे उनके गाँव के बारे में जानना था तो हमने एक प्लान बनाया कि इनसे स्कूल वाले बनकर बात करेंगे. तभी ये हमारी बातों पर गौर करेंगे. और हमें किसी जवाब का जवाब देंगे.
“हम स्कूल से आये हैं आपके गाँव ने शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए.”
“क्या आपसे दो मिनट बात हो सकती है” सुरेश ने उससे पूछा.
“हाँ हाँ मालको आवो थारा स्वागत है म्हारे गाँव मा.”
“क्या हम आपके बच्चों से मिल सकते हैं.” मैंने उस नौजवान से सवाल किया.
“हाँ मालको आवो यहाँ खेल रहे हैं सारे. मिल लो बात कर लो.” उसने जवाब दिया.
लगभग 15 बच्चे होंगे उस पूरे गाँव में, मैंने उन बच्चों को गिनते ही सुरेश से कहा ये क्या है भाई. सिर्फ 15 बच्चे, जनसंख्या कम है क्या यहाँ की…? ये मेरी और सुरेश की पूरे रास्ते भर में पहली बार बात हुई थी. सुरेश के दोस्त ने कहा, यहाँ सही है भाई
“न टीवी न कोई जागरूकता फिर फॅमिली प्लानिंग कर रखी है न लोगों ने”
“अरे नहीं मामला कुछ और है यार” सुरेश ने कहा.
और सुरेश की बात पर मैंने जब गौर किया और बच्चों की उम्र का अवलोकन किया तो मुझे भी ये लगा कि मामला कुछ और ही है यहाँ पर. क्या हो सकता है मैं सोच रहा था. और मेरी बात को ही शायद सुरेश सोच रहा था.
“कहने लगा यार ये बच्चे एक ही उम्र के नहीं लगते.”
“हाँ यार तू कह तो सही रहा है, सब 8 से 10 साल के बीच ही के हैं” सुरेश के दोस्त ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा.
“क्या चक्कर है भाई” मैंने सुरेश से कहा.
“मुझे भी कुछ समझ नही आ रहा है” सुरेश ने कहा.
तभी एक बच्ची से बात करते हुए सुरेश के दोस्त को हम दोनों ने देखा वह उससे बड़ी गहराई से बात कर रहा था.
“ये साला क्या समझा रहा है उस बच्ची को” सुरेश कहता हुआ उसकी ओर बढ़ा.
मैं भी उन दोनों की ओर बढ़ा, और दोनों उसकी बातों को सुनने लगे बाकी तो कुछ सुन नहीं पाए पर इतना कहते उसे जरुर सुना कि मैं बापू के लिए सबसे कीमती हूँ न इसलिए मुझे भी बड़ी दीदी की तरह गिरवी रखा हुआ है. बड़े घर में.
अब क्या कहते सुरेश का दोस्त को कुछ कहने की हालत में नहीं था इस बात को सुनने के बाद, जाकर एक जगह पर बैठ गया. चुपचाप जैसे कहीं खो गया हो. हम दोनों भी मानो ठहर गए हो किसी बवंडर में भी अपनी ही जगह खड़े रह गए हो. वो बवंडर भी हमें हिला नहीं पा रहा था. पैर जैम गए थे. काफी देर बाद सुरेश के मुंह से एक आवाज़ सुनी
“क्या… कीमती का ये मतलब होता है. आखिर ये बच्चियां क्या करती हैं, वहां जाने के बाद?” ये सवाल सुरेश ने मुझसे किया.
“चल चलकर देखते हैं. वहीँ पर” मैंने इशारा करते हुए उससे कहा.
जब हम वहां पहुंचे तो बच्चों की कतार लगी थी आस पास के गाँवों के बच्चे भी यहाँ अपनी मजबूरी से निपटने के लिए बच्चों को गिरवी रखा गया था. हर बच्चे के पास अपना एक काम था. कुछ खुश थे यहाँ पर कुछ बहुत ही ज्यादा परेशान अपने परिवार के पास जाना चाहते थे. पर हुकूमत ने पैर बाँध रखे थे उनके. कैसे जाते. कहाँ जाते 11 साल के होते ही यहाँ लाये जाते थे ये बच्चे. मुझे समझ में आया कि वो बच्चे गाँव में कैसे बाकी हैं. अभी एक साल बाकी है उनका यहाँ आने का. अगले साल वह भी यहाँ आने वाले हैं.
“कर्ज के बदले बच्चों को गिरवी रखना”
मजबूरी के बदले अपनी कोख को गिरवी रखना यहाँ की रीत नहीं, दुर्भाग्य है. राम पुर का.
कुछ कर तो नहीं सकते थे तो निकल पड़े थाने में उस रजवाड़े परिवार की शिकायत करने…
थाने के थानेदार ने कहा, “जाओ भाई अपने घर जाओ यहाँ तो ऐसे ही चलता है.”
“कोई कुछ नहीं कर पाया, बहुत आये हैं तुम्हारे जैसे”
“जाओ कहीं तुमको भी न गिरवी रख दे कोई” थानेदार की इस बात पर पूरा थाना खिलखिला कर हंसने लगा. और हम मजबूरी में उनकी तरफ देखते रहे.
वाकई कोई नहीं था वहां पर हमारी सुनने वाला, उन बच्चों को बचाने वाला. उन माओं की मदद करने वाला, और जिसने कोशिश की है उसे हुक्मरानों ने दबा दिया है हमारी तरह.
ये भी मतलब हो सकता है गिरवी का पहली बार जाना, और बड़े नज़दीक से महसूस किया की कितना दर्द होता ही अपने बच्चों को अपने से दूर करते हुए उन्हें किसी के हाथों में सौंपते हुए. अपनी मर्जी से नहीं दीनता को कम करने दो वक़्त की रोटी के लिए गिरवी रखने पर.
“क्या ऐसा भी होता है” वहां से जाते हुए बस इतना ही निकला हम तीनों के मुंह से.
कोशिश बहुत की पर कुछ हो नहीं पाया, कुछ देकर या लेकर तो नहीं आये बस उस बच्ची की आवाज़ आज भी साथ है जो मासूमियत से कह रही थी. मैं अपने बापू की सबसे कीमती चीज़ हूँ, इसीलिए उन्होंने मुझे गिरवी रखा है.
-अश्वनी कुमार
बहुत अच्छी कहानी.