नवरात्रा
नवरात्रा पर्व मनाते है
देवी को हम रिझाते है
खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखा
हवन पूजन कराते है
पर क्या कभी किसी देवी की
मनोस्थिति समझनी चाही
कोख मे ही मारा किसी ने
जब भी वो जन्म नी चाही
या किसी कन्या रूप मे
उसका शोषित हाल हुआ
कर तार तार उसकी इज्जत
इंसानियत बेहाल हुआ
कभी घर कभी बाहर
कहा है कन्या सुरक्षित है
मानवता के न जाने किस रुप मे
छिपे दरिंदे की जीत है
करो भले कितने भी जतन
किसी देवी को मनाने की
हरहाल में रोयेगी वो
इस इंसानियत को खाने की
हटानी पङेगी गंदगी ये
हमको गर उसे मनाना है
एक दो से नही होगा
सबको कदम मिलाना है
नजर को अपनी साफ करके
जो कन्या को देवी समझे
ऐसे सुन्दर अहसास हमे
अब इस धरा पर लाना है
होगा तप पूरा जब ये
ये सोच सुंदर धारण होगी
नवरात्र मनाने की कोशिश
इस बार इसी कारण होगी
एकता सारदा
बढ़िया कविता.
बहुत अच्छी कविता , अगर लोग समझें और सोचें कि अगर भगवान् है तो वोह सब देखता है. झूठा दिखावा करके समय बर्बाद करने से बिहतर है जीती जागती देवी को इअज़त की नज़र से देखना .