कविता

अकेला आदमी

अकेला आदमी

अधुनातन लम्हो में
स्वतः ही खनकती
हंसी को टटोलता
अकेला आदमी .

लोलुपता की चाह में
बिखर गए रिश्ते
छोड़ अपनी रहगुजर
फलक में
उड़ चला आदमी .

उपलब्धियो के
शीशमहल में
सुभिताओं से
लैस कोष्ठ में ,
खुद को छलता ,
दुनिया से
संपर्क करता ,
पर एक कांधे को
तरसता आदमी .

उतंग पर खड़ा ,
कल्पित अवहास
अभिवाद करता
अज्ञात मुखड़ो
को तकता ,
भीड़ में भी
इकलंत आदमी

shashi purwar

3 thoughts on “अकेला आदमी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता .

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    bahut hi sundar rachanaa

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब ! आपने इस कविता में अकेले आदमी की पीड़ा को भली प्रकार व्यक्त किया है.

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