~उद्धार~
रावण धू धू कर जल रहे थे
हम पैसों की बर्बादी देख दुखी हो रहे थे
अगल-बगल देखे रावण ही बिखरे थे
सब रावण के ज्वाला से ही निखरे थे
उनकी शक्ल भयावह दिख रही थी
आँखों में भी मक्कारी तैर रही थी
हमने झट प्रभु को याद किया
हे राम तुमने सतयुगी रावण का तो उद्धार किया
आज फिर कलयुग में सख्त जरुरत हैं आपकी
इन सभी पापियो का कर दो उद्धार
जो पापी बिखरे हैं हमारे ही आस-पास
आंख बंद कर कर ही रहे थे विनती
एक चिंगारी आ पड़ी मुझ पर ही जब चिटकी
हम ही जलने लगे आग झट पकड़ ली
बच्चे रोने बिलखने लगे
पतिदेव हम पर ही चीखने लगे
जब चिंगारी चिटकी तो क्या तुम सो रही थी
ऐसे तैसे राम जाने कैसे आग बुझी
उस आग से मैं जिन्दा बची थोड़ी सी ही बस सुलझी
प्रभु को फिर याद किया और पूछा
तूने मेरे से साथ ऐसा क्यों किया
प्रभु मंद मंद मुस्काए फिर बोले
रे मुरख तूने ही तो कहा था
आस-पास बिखरे कलयुगी रावण का उद्धार करो
तो सबसे पास तो तू ही थी
तुझसे ही शुरुआत किया
अब बोल क्या चाहती हैं
उद्धार करू या छोडू
हम स्तब्ध हो अपने ही गिरेबान में
झाँक बहुत ही शर्मिंदा थे
प्रभु अब क्षमा करो छोड़ ही दो
हम अज्ञानी थे
अब से नहीं देखेगें दुसरे के दोष
अपने ही पहले ढूढ समाप्त करेगें
प्रभु भी बहुत दयालु थे
झट मान गये
आगे से हम से यह मत कहना
साथ ही यह भी समझा गये
तब से जैसा चल रहा हैं चलने दे रहे हैं
रावण को जलता देख हम भी खुश हो रहे हैं| सविता मिश्रा
आप सभी को दशहरा की हार्दिक शुभ कामनाये
अच्छी कविता, बहिन जी. अन्दर के रावण को मारे बिना रावन के पुतले जलाने का कोई अर्थ नहीं है.