हमारा इसमें क्या कुसूर था
काटों पर ही चलना,
अपना जुनून था,
नफरत को प्यार से,
जीत कर आया सुकून था |
क्रोध के अग्नि पर,
प्रेम की बौछार करना,
अपना तो ध्येय था,
निरर्थक नहीं यह व्यय था |
सत्य का आह्वान,
असत्य का विनाश करना,
अपना तो यही उसूल था,
इसके लिए बद होना भी कबूल था |
प्यार का सागर नहीं,
बन पाये तो क्या,
नदी बनना भी हमें,
मंज़ूर था |
आसमा से गिरा दिया,
यूँ ज़मीन पर तु ही,
बता दे ओ मेरे माहि,
हमारा इसमें क्या कुसूर था |
||सविता मिश्रा |
बहुत सुन्दर कविता दीदी .
बहुत अच्छी कविता है , अछे विचार .
अच्छी कविता, बहिन जी.