धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर द्वारा वेद और वेदार्थ का प्रकाश केवल एक बार ही क्यों?

निवेदन

महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके वैदिक सिद्धान्तों में हमारी पूरी आस्था है। एक युवा सम्मेलन में विगत सप्ताह बैठे हुए हमारे मन में यह प्रश्न आया कि ईश्वर सृष्टि में केवल एक ही बार ही वेद ज्ञान देता है जबकि वेद ज्ञान की आवश्यकता तो प्रलय से पूर्व काल तक, जब कि मनुष्य सृष्टि में विद्यमान रहेगा, सदैव रहती है। क्या ईश्वर को पुनः व अनेक बार वेदों का ज्ञान नहीं देना चाहिये? आज हमें जो वेदार्थ प्राप्त है, वह भी पूर्ण व अन्तिम नहीं है। इसके लिए जो प्रयास हो रहे हैं वह भी या तो हो ही नहीं रहे या कहीं नाम मात्र के होंगे। इसका उत्तर यही है कि ईश्वर पुनः वेदों का ज्ञान जैसा उसने सृष्टि के आरम्भ में दिया था, प्रलय काल तक पुनः नहीं देगा। फिर भी हमने इस लेख में इस पर कुछ थोड़ा सा विचार किया है। विद्वानों से निवेदन है कि वह हमारा मार्गदर्शन करें। हम पुनः कहना चाहते हैं कि स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तों में हमारी शत-प्रतिशत आस्था है, अतः इस लेख को इसी भावना के अनुरूप ही लेना चाहिये।
-मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द और आर्य समाज की मान्यताओं और सिद्धान्तों के अनुसार ईश्वर सृष्टि को बनाकर अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न, आदि, प्रथम व सृष्टि की पहली पीढ़ी में उत्पन्न, चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को चार वेदों, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान देता है। यह चार ऋषि वर्तमान कल्प के आदि पुरूष हैं। हमारी तरह से इनके भौतिक माता-पिता नहीं थे। ईश्वर ही इनकी माता भी थी और पिता भी था। सृष्टि की 4.32 अरब वर्षों की अवधि में ईश्वर द्वारा पुनः वेदों का आविर्भाव व वेदार्थ ज्ञान दिए जाने, जनाने आदि का कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। सृष्टि के आरम्भ से अब तक व्यतीत 1.96 अरब वर्षों की अवधि में पुनः वेदों का ज्ञान नहीं दिया गया जिसका अर्थ है कि ईश्वर इस कल्प की शेष अवधि में भी नहीं देगा। इस कारण यही मान्यता प्रचलित है कि ईश्वर वेदों और वेदार्थ का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में केवल एक ही बार देता है। हम सब जानते हैं कि सृष्टि के एक कल्प की अवधि अर्थात् ब्रह्मा का एक दिन 4.32 अरब वर्ष का होता है। इस अवधि में एक व अनेकों बार वेदों का ज्ञान व सत्य वेदार्थ लुप्त हो सकता है या कुछ थोड़े से ही लोगों में सीमित हो जाता है। ऐसी स्थिति में उस काल में इस पृथिवी के देश व विदेश में रहने वाले सभी मानवों को वेद ज्ञान से वंचित होने के साथ अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों के सहारे अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है।

ऐसा ही हमने महाभारत काल के बाद पाया और आजकल भी 90 से 99 प्रतिशत लोग वेद ज्ञान से रहित अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त किंवा मनुष्य निर्मित सत्यासत्य ज्ञान युक्त अनार्ष धर्म व मत पुस्तकों के आधार पर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमारे मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ है कि क्या इन परिस्थितियों में ईश्वर को वेदों के ज्ञान का संसार में पुनः प्रकाश स्वयं अथवा कुछ ऋषियों को भेजकर करना चाहिये वा नहीं? हम सब जानते हैं कि ईश्वर त्रिकालदर्शी है और वेद उसका नित्य ज्ञान है जो सदा-सदैव, प्रत्येक क्षण, उसके साथ रहता है। ईश्वर इसके साथ-साथ निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान भी है। गायत्री मन्त्र से हम प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलाये। यह वेद मन्त्र मनुष्यकृत नहीं है अपितु ईश्वरकृत रचना है। अब जब स्वयं ईश्वर ने हमें गायत्री के पाठ से ईश्वर से बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग पर चलाने की प्रार्थना करने का विधान किया है तो हमारे द्वारा सत्य ज्ञान अर्थात् वेद ज्ञान मांगने व आवश्यकता होने पर उसे हमें व सृष्टि के सभी मनुष्यों को वेद ज्ञान व वेदार्थ अवश्य प्रदान करना चाहिये, ऐसा हमारा विचार है। यदि ईश्वर ज्ञान न दे तो गायत्री मन्त्र में ईश्वर से ‘धियो यो न प्रचोदयात्’ की प्रार्थना पूर्ण सार्थक प्रतीत नहीं होती। हमने स्वयं भी अनुभव किया है कि हमारे मन में कुछ विचार ऐसे आ जाते हैं जिनका पूर्व संस्कार इस जन्म में हममें नहीं होता और जब हम उस पर विचार पर चिन्तन-मनन करने लगते हैं तो हम कुछ नवीन लेख आदि तैयार कर पाते हैं। इससे हमें यह लगता है कि ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में प्रेरणा व मार्गदर्शन करता रहता है। मान्यतायें एवं सिद्धान्त भी यही है कि जिसका हृदय शुद्ध व पवित्र होता है उसे ईश्वर द्वारा की गई प्रेरणाओं का ज्ञान होता है, जिसे जान व समझ कर उसके अनुसार कार्य करने पर उसे सफलता मिलती है। परन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो स्वार्थ या काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि में ग्रसित रहते हैं, वह ईश्वर की प्ररेणा या प्रेरणाओं को अनसुना कर देते हैं जिससे उन्हें प्रेरणा होना या तो बन्द हो जाता है या फिर प्रेरणा के होने पर उन्हें वह सुनाई नहीं पड़ती अर्थात् वह उसे जान व समझ नहीं पाते हैं।

हम यह भी देखते हैं और जानते हैं कि ईश्वर जीवात्मा को उसके प्रारब्ध के अनुसार जन्म या पुनर्जन्म देता है। इसका अर्थ है कि जीवात्मा के पुराने शरीर का त्याग कराकर उसे उसके कर्मानुसार नया शरीर मिलता है। अब यदि जीवात्मा मनुष्य योनि में है और वेदों के ज्ञान से रहित या शून्य है तो उसे क्या जीवात्मा को वेदों का ज्ञान नहीं देना चाहिये। हमें प्रतीत होता है कि जीवात्मा को अवश्य ज्ञान मिलना चाहिये। मनुष्य को अक्षर व भाषा तथा सामान्य ज्ञान देने के लिए विद्यालयों के आचार्य हैं। वेदों का ज्ञान अर्थात् सत्य व यथार्थ व पूर्ण वेदार्थ कराने की योग्यता सम्भवतः आज के आचार्यों में नहीं है और न ही पूर्व आचार्यों में थी। पूर्ण वेदार्थ तो ईश्वर के ही ज्ञान में होना सम्भव है। मनुष्य या हमारे ऋषि तो अपनी योग्यता व पात्रता के अनुसार ही अर्थ जानते हैं और उनका व्याख्यान या प्रकाश करते हैं। ऐसा ही महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायी वेद भाष्यकारों ने किया है। अतः किसी एक जीवात्मा को ही नहीं अपितु सारे संसार में वेदों के ज्ञान का प्रकाश ईश्वर को ही करना उचित प्रतीत होता है। कारण यह कि आज भी विश्व के 90 से 99 प्रतिशत लोग यथार्थ वेद ज्ञान से पूरी तरह या अधिकांशतः वंचित हैं। अतः वह सब वेदाचरण करें यह सम्भव नहीं है। यदि ईश्वर उन सब तक वेदों का प्रकाश नहीं करेगा तो हो सकता आने वाला समय और अधिक निराशाजनक हो जैसा कि महाभारत काल के बाद महर्षि दयानन्द के समय तक हुआ है।

यह भी प्रश्न उत्पन्न होता कि परमात्मा ने ऐसा नियम क्यों बनाया कि वह सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान देने के बाद प्रलय से पूर्व वेदों का ज्ञान न दें और ऐसी परिस्थिति में भी कि जब वेद व वेदार्थ अपूर्ण व पूर्ण रूप से विलुप्त हो जाये। ईश्वर से चार ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था। वेदार्थ भी ईश्वर ने चार ऋषियों को जनाये थे। इन चार ऋषियों ने वेद और वेदार्थ ब्रह्माजी को पढ़ाये व जनाये थे। क्या जो वेदार्थ ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को जनाया था और इन चार ऋषियों ने ब्रह्माजी को जनाया था वह उत्तर काल में यथावत् रहा या वह परिवर्तित व कुछ कुछ विस्मिृत भी हुआ? इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि ईश्वर प्रदत्त वेदार्थ महाभारत काल के बाद व वर्तमान में भी पूरा उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में सारा मनुष्य समुदाय जिनकी जन संख्या इस समय 7 अरब से अधिक हो सकती है, सत्य व यथार्थ वेदार्थ से वंचित है। अतः आज आवश्यकता है कि ईश्वर मनुष्यों तक सत्य वेदार्थ को पहुंचाने का प्रयत्न करे। परन्तु यह परम्परा के विपरीत होने से होने वाला नहीं है। लौकिक उदाहरण में हम देखते हैं कि एक शिक्षक, आचार्य और गुरू अपने शिष्य को बार-बार पाठ पढ़ाते है। शिष्य यदि गुरू जी से बार-बार कुछ प्रश्न पूछता है तो गुरू जी को बताने में प्रसन्नता होती है। शिष्य भूल जाये और गुरू के पास जाकर पूछे तो गुरूजी उसकी पात्रता देखकर उसे विस्मृत बात या पाठ बता देते हैं। परन्तु वेदों के बारे में ईश्वर ऐसा नहीं करता है। सारा संसार वेदों को भूला हुआ है परन्तु ईश्वर उन तक वेदों को पहुंचाने की व्यवस्था नहीं कर रहा है। इस लिए हमें यह विचार करना है कि यदि ईश्वर वेद ज्ञान व वेदार्थ नहीं दे रहा है तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं। आईये, इसके कारणों पर विचार करते हैं।

हमें यह लगता है कि ईश्वर के पास वेदों का जो ज्ञान है वह नित्य है व हर काल में उसके साथ रहता है। अतः उसे यह ज्ञान मनुष्यों की आत्माओं मे ंप्रकाशित करने में कोई कठिनाई, देश व काल की दूरी व ज्ञान की अनुपलब्धता आदि, नहीं है। हो सकता है हमारे मन व आत्मा पूर्ण शुद्ध न होने के कारण हमें उसके वेद ज्ञान का आभास व अनुभव न हो पाता हो। ऐसी स्थिति में ईश्वर को पुनः दयानन्द के समान ऋषियों को उत्पन्न कर व भेजकर शेष धरती के लोगों को वेद ज्ञान से युक्त करना चाहिये। इतना ही नहीं हमें तो यह भी उचित लगता है कि ईश्वर को हमारी व सभी मतावलम्बियों की आत्माओं में वेदों के प्रति सत्य आस्था उत्पन्न करनी चाहिये जिससे सभी वेदानुसार ही कर्तव्य-कर्म व धर्मपालन करें। सत्यासत्य समन्वित अनार्ष मतों के प्रति ईश्वर को हमारे मन में ग्लानि व विरक्ति जैसे गुण भी उत्पन्न करने चाहियें। जब यह ज्ञान होगा तभी तो हम वेदानुसार कर्म कर पायेंगे। इस दिशा में विद्वानों को चिन्तन कर इस प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करना चाहिये। ईश्वर का मनुष्यों को दूसरी बार वेदों का ज्ञान न देने का कारण हमें लगता है कि ईश्वर ने यह ब्रह्माण्ड और हमारा सौर्य मण्डल बनाया है। यह कार्य वह अपने नियमों के अनुसार एक कल्प में केवल एक ही बार करता है। इसी प्रकार उसका अपना नियम व व्यवस्था है कि वेदों का ज्ञान सृष्टि की आदि में एक बार ही प्रदान करना है। मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह न केवल उसकी रक्षा करें अपितु उसे अपनी आगे की पीढ़ियों को भी सौंपे। इस कार्य में व्यतिक्रम होने के कारण ही वर्तमान अवस्था उत्पन्न हुई है। आज महर्षि दयानन्द के प्रयासों से जो वेद ज्ञान आर्य समाज व हमारे देश में है, उसकी रक्षा, विस्तार, प्रचार व प्रसार के लिए पूरी भावना, निष्ठा व समर्पित भाव से प्रचार करें तो वेदों और वेदार्थ को सारे संसार में फैलाया जा सकता है। आवश्यकता दृण संकल्प लेकर तदनुसार कार्य करने की है।

आज संसार में आर्य समाज के अनुयायियों के पास ही मुख्यतः वेदों का ज्ञान है। वेदों की आज्ञा है ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’। इसका अर्थ है कि वेद प्रचार क्यांेकि विश्व में ईसाई, मुसलमान व पौराणिक हिन्दू आदि अनेक सम्प्रदाय भी अपनी-अपनी प्रकृति, ज्ञान व सामथ्र्य आदि से अपनी मत पुस्तकों का कोई बहुत अधिक और कोई कम प्रचार कर रहा है। क्या आर्य समाज को उनका उदाहरण देखकर स्वयं भी वैसा ही प्रचार नहीं करना चाहिये? वह भी तब जब कि ईश्वर के सच्चे उपासक, भक्त, वेदज्ञ, शास्त्रज्ञ, सत्यान्वेशी, देश-धर्म व संस्कृति के रक्षक-पुरोधा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्य वेदार्थ बताया है और कहा है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों व मनुष्य मात्र का परम धर्म है। हमें लगता है कि आज वेदों के बड़े-बड़े आर्य विद्वान भी महर्षि व ईश्वर की हम आर्यों से अपेक्षा के अनुरूप वेद प्रचार का कार्य नहीं कर रहे हैं। कोई उपदेशक, वेदोपदेशक, विद्वान शिक्षक, प्रोफेसर, कुलपति, कुलाधिपति व आर्यनेता बनकर व कोई पुस्तक व लेख लिखकर ही सन्तोष कर रहा है। अधिकांश तो दक्षिणा व वेतन के लिए कार्य करते हैं जिसे समर्पित भाव से किया गया वेद प्रचार नहीं कह सकते। समाज में जाकर जन सामन्य से सम्बन्ध स्थापित कर वहां गुरूकुल, पाठशाला, कपेजंदबम समंतदपदहए प्रातः व सायंकालीन कक्षाओं आदि कार्य नहीं हो रहा है। इससे वेद व प्रभूत वैदिक साहित्य के होते हुए भी जड़ता की स्थिति है। यदि हम सत्यार्थ प्रकाश का ही भली-भांति प्रचार करें तो हमें लगता है कि यह भी वेद प्रचार में सहायक हो सकता है। हमें स्वाध्याय के महत्व को स्वयं समझना है व दूसरों को भी समझाना है। यदि हम आर्यों में स्वाध्याय की प्रवृति, संस्कार व रूचि नहीं होगी तो वेद प्रचार नहीं होगा। आर्य समाजी जहां श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव वाला व्यक्ति होता है, वहीं उसका प्रतिदिन व नियमित बिना व्यवधान के स्वाध्याय करना भी अनिवार्य व आवश्यक है। इससे वेदों की रक्षा, प्रचार तथा ऋषि व वेदों की आज्ञा का पालन तथा हमारे जीवन का साफल्य भी निहित है।

ईश्वर ने सृष्टि की आदि में वेदों का ज्ञान दिया था। उसके बाद अनेक उतार-चढ़ाव आये, महाभारत काल का युद्ध व उसका उत्तरकाल, अन्धविश्वास, अज्ञान, मिथ्या विश्वास, अन्याय, पतन व घोर पीड़ाओं का युग रहा परन्तु हमें ईश्वर ने वेदों का ज्ञान दुबारा नहीं दिया। महाभारत काल में श्री कृष्ण जी, महर्षि वेद व्यास जी आदि अनेक वैदिक विद्वान व उनके शिष्य, पुत्र, पौत्रादि हुए। धर्मराज युधिष्ठिर जी तो स्वयं वेदाचरण की जीवित जागृत मूर्ति थे। उनके बाद केवल एक महर्षि दयानन्द व उनके कुछ अनुयायी पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी वेदानन्द जी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी आदि हुए हैं जिन्होंने सही अर्थों में वेद प्रचार स्वयं किया व वेद प्रचार का वास्तविक अर्थ व पद्धति बताई। सम्प्रति यह कार्य शिथिल पड़ा है। यदि ऐसा ही रहा तो भविष्य चिन्ताजनक है। विगत 1 अरब 96 करोड़ 08 लाख 53 हजार से कुछ अधिक वर्षों में तो ईश्वर ने दूबारा वेद ज्ञान दिया नहीं, आगे भी नहीं देगा, ऐसी ही सम्भावना है,

अतः आर्य समाजों में दुकाने बनवाने, किराया वसूल करने, पगड़ी की भारी भरकम रकम वसूल करने, उसमें भ्रष्टाचार होने, अन्य व्यापारिक कार्य करने, हस्पताल व स्कूल आदि बनवाने व चलाने, नशाबन्दी, भू्रण हत्या व सती प्रथा का विरोध जैसे आन्दोलन करने जैसे कार्याें को छोड़कर केवल और केवल वेद प्रचार में ही लग जाना चाहिये जिससे ईश्वर की आज्ञा का पालन हो सके और महर्षि दयानन्द ने भारी उद्योग व पुरूषार्थ करके जो वेदों की रक्षा व प्रचार-प्रसार किया है, वह पुनः अवरूद्ध व समाप्त न हो जाये। आर्य समाज के सत्संगों में विद्वानों को आमत्रित करके प्रवचन द्वारा, गोष्ठियों व कार्यशालाओं आदि के आयोजन के माध्यम से वर्तमान में वेद प्रचार की क्या रूप रेखा हो सकती है, इसका निर्धारण करना चाहिये। हमें लगता है कि हमें प्रभावी वेद प्रचार योजना की आवश्यकता है जो अभी हमें ज्ञात नहीं है। वेद व हमारे शास्त्रों में सभी दानों से बढ़कर वेद विद्या के दान को श्रेष्ठ बताया गया है। प्रमाण, बुद्धि, युक्ति व तर्क से भी यह सिद्ध है। इसकी तुलना में किसी प्रकार की सेवा व परोपकार के कार्य, धर्म-कर्म आदि बाद में आते हैं। हमें लगता है कि वेदों की रक्षा व वेदों का प्रचार प्रसार ही संसार के सभी लोगों का परम धर्म है। यह बात आर्य समाज को भी समझनी है, पौराणिक, ईसाई आदि सभी मतावलम्बी बन्धुओं को भी समझनी है। वेदों की रक्षा व प्रचार भी ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमम् कर्मः’ की भांति एक महान श्रेष्ठतम कर्म व यज्ञ कार्य है जो घर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधक है।

2 thoughts on “ईश्वर द्वारा वेद और वेदार्थ का प्रकाश केवल एक बार ही क्यों?

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्तम लेख. वेड अपने आप में सम्पूर्ण हैं. यह हमारा दायित्व है कि हम उनमें दिए गए संदेशों को अपने जीवन में उतारें.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते महोदय, लेख पर प्रतिक्रिया लेखक के विचारों एवं लेख की भावना के अनुरूप है। प्रतिक्रिया लेखक श्री विजय कुमार सिंघल जी को हार्दिक धन्यवाद। -मन मोहन आर्य

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