काश ! कोई होता
दबा हुआ है मन में बहुत कुछ
बहुत कुछ कहना चाहते हैं ये लब
फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते हैं
कहीं कुछ ,गलत न कह जायें
कहीं कोई रिश्ता ,दरक न जाये
कहीं लब खुले तो सैलाब न ले आए
काश ! कोई सुनने वाला होता
इस दिल की वीरानी को
समझता इस खामोशी को
मन में दबे हुए लफ्जों को
आँखों में सूखते अश्कों को
काश ! कोई होता ।
— प्रिया
शुक्रीया गुरमेल सिंह जी , किशोर कुमार खारेंद्र जी , विजय सिंघल जी
बहुत अच्छी कविता वच्छानी जी .
waah
बहुत खूबसूरत कविता, प्रिया जी.