वेदों का अध्ययन, आचरण व प्रचार सब मनुष्यों का परम धर्म
महर्षि दयानन्द निर्वाणोत्सव पर श्रद्धांजलि
आज संसार के लगभग 7 अरब लोग अनेक मत मतान्तरों के अनुयायी हैं। सब मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों की अपनी-अपनी पुस्तकें हैं जिन्हें आजकल धर्म ग्रन्थ के नाम से जाना जाता है। यह सभी मान्यतायें एक दूसरे के समान न होकर उनमें परस्पर मतभेद व अन्तर हैं तथा बहुत सी मान्यतायें एक दूसरे की विरोधी भी हैं। वैदिक सनातन धर्म के अनुयायी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं परन्तु अवैदिक मतों में से अनेक मत पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। वैदिक धर्म शाकाहार का अनुसरण करता है जबकि अनेक मत ऐसे हैं जिनमें साधारण पशुओं सहित गाय तक का मांस खाना वर्जित नहीं है। इन मतों के अनेकानेक लोग गो मांस खाते हैं। भारत ऋषि-मुनियों का देश है। यह दुःख व चिन्ता की बात है कि भारत से गोमांस का निर्यात किया जाता है। इतना ही नहीं गो आदि पशुओं को निर्ममता से मारा जाता है जो कि मनुष्यता की परिभाषा के विपरीत होने से दानव प्रकृति व प्रवृत्ति का द्योतक है। क्या संसार के किसी भी मनुष्य के लिए गो आदि मनुष्यों के हितकारी पशुओं की हत्या करना किसी भी स्थिति में उचित है और क्या किसी भी मनुष्य को गोमांस खाना चाहिये, हमें लगता है कि यह पूर्णतः अनुचित है और किसी भी मनुष्य को किसी भी पशु का मांस कदापि नहीं खाना चाहिये। यह घोर अधर्म है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसके पीछे धोर अज्ञानता, जिह्वा का स्वाद व मत-पन्थों की पुस्तकों की अनुचित मान्यतायें हैं। दया सभी मनुष्यों का धर्म हैं। जहां दया नहीं है, वहां धर्म हो ही नहीं सकता। क्या पशुओं के प्रति हिंसा करने वाले दयालु कहे जा सकते हैं? कदापि नहीं कहे जा सकते। जो हिंसा होते देखते हैं परन्तु विरोध नहीं करते वह भी डरपोक व हिंसा करने वालों के सहयोगी ही कहे जा सकते हैं जिसका फल ईश्वर की व्यवस्था से ऐसे व्यक्ति को उनके कर्म व पाप के परिमाण के अनुपात में अवश्य मिलेगा। बुद्धिमान मनुष्यों को यह सोचना चाहिये कि पशुओं को ईश्वर ने क्यों जन्म दिया है? विचार करने पर हमें इस प्रश्न का उत्तर मिलता है कि इन पशुओं के अन्दर जो जीवात्मायें हैं उनके पूर्व जन्मों के कर्म इस प्रकार थे कि ईश्वर ने फल का भोग करने के लिए इन्हें पशु बनाया है। दूसरा कारण यह भी है कि यदि सृष्टि में यह पशु व पक्षी न हों तो मनुष्य का जीवन भी नीरस हो सकता है। तीसरा कारण यह भी लगता है कि ईश्वर इन पशु व पक्षियों के माध्यम से हमें शिक्षा दे रहा है कि हम उन्हें देखकर अच्छे कर्म करें अन्यथा मृत्यु के बाद अगले जन्म में हमें भी उसी प्रकार का जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। इन पशुओं व पक्षियों को ईश्वर ने अनेक प्रयोजनों से उत्पन्न किया है जिसका हमारी सीमित बुद्धि होने के कारण हमें ज्ञान नहीं है। अतः हमें अहिंसात्मक जीवन व्यतीत करते हुए उन्हें उनकी पूरी आयु तक जीवन व्यतीत करने में सहयोग करना चाहिये। यदि हम ऐसा करेंगे तो इससे हमें ही लाभ होगा। कल अर्थात् अगले जन्म में यदि हम किसी कारण से पशु या पक्षी बन गये तो इसका हमें ही लाभ होना है। यदि हम गलत परम्परायें डालेंगे तो इससे भविष्य में हमें ही हानि हो सकती है। अतः मनुष्य को मननशील होकर ही अपने सभी कार्य करने चाहिये। जो इस प्रकार से सोच विचार कर अहिंसा का पालन करेगा वह धार्मिक कहलायेगा और जो दया के स्थान पर निर्दयता का परिचय देता है वह वैदिक सनातन मत के आधार पर अधार्मिक, अधर्मी, दानव, अनार्य या पापी ही कहे जा सकते हैं। ऐसा ही अन्य-अन्य कर्तव्यों व कर्मों के सम्बन्ध में जाना जा सकता है।
संसार में इतने अधिक मत-मतान्तर क्यों हैं? इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि संसार के सभी मताचार्यों का वेद ज्ञान से रहित होना, ज्ञान की कमी, मताचार्यों के भ्रम व अन्धविश्वास तथा उनकी लोकैषणायें ही इन व ऐसी समस्याओं का कारण हैं। किसी भी मत या धर्म के व्यक्ति को यदि वेदों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है तो वह कदापि किसी प्राणी या पशु की हत्या नहीं कर सकता। वेदों का ज्ञान होने पर वह पशुओं को भी अपनी आत्मा के समान और अपनी आत्मा को पशुओं के समान जानने व देखने लगता है व उसका व्यवहार सबके प्रति प्रेम, स्नेह, त्याग व सेवा का होता है। आईये, यह जानने का प्रयास करते हैं कि वेद क्या हैं और वेद अन्य मतों व धर्मों के ग्रन्थों से भिन्न किस प्रकार से हैं? वेद ज्ञान की चार पुस्तकों को, जिन्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से जाना जाता है, कहते हैं। इन पुस्तकों में संस्कृत में लिखे हुए मन्त्र हैं। यह मन्त्र इस संसार को बनाने व चलाने वाले ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न करने के बाद अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों में चार श्रेष्ठ जीवात्माओं जिनके नाम क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा हैं, दिये थे। कैसे दिये थे? इस प्रश्न का उत्तर है कि संसार को बनाने वाली सत्ता ईश्वर चेतन तत्व, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सूक्ष्मातिसूक्ष्म आदि अनन्त गुणों वाली है। वह सर्वव्यापक व सर्वातिसूक्ष्म होने से सभी मनुष्यों के शरीरों के भीतर तो विद्यमान है ही, इसके साथ वह सभी प्राणियों की आत्माओं के भीतर भी एकरस होकर विद्यमान व स्थित है। एक प्रसिद्ध नियम है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। विचार व गहन चिन्तन करने पर यह नियम सत्य पाया गया है। कोई भी विचार व चिन्तन कर इसकी पुष्टि कर सकता है। इस नियम का प्रकारान्तर से यह भी अर्थ है संसार में विद्यमान सभी विद्यायें ईश्वर में विद्यमान हैं और उसी से संसार में फैली हैं। अर्थात् ईश्वर ही सभी विद्याओं का आदि स्रोत है। प्रश्न यह है कि ईश्वर में जब सब विद्यायें हैं तो वह अल्पज्ञ जीवात्मा अर्थात हम व सभी प्राणी जिन्हें ज्ञान व विद्याओं की आवश्यकता है, ज्ञान देगा या नहीं? हम माता-पिता व आचार्य का उदाहरण लेते हैं। माता-पिता और आचार्य कोई अधिक और कोई कम ज्ञानयुक्त होते हैं। वह अपनी सन्तानों वा शिष्यों को उनके लाभ व सुख के लिए निःस्वार्थ भाव से अपनी पूरी सामर्थ्य से अधिक से अधिक ज्ञान प्रदान करते हैं। यही उदाहरण ईश्वर पर भी अक्षरक्षः घटित होता है। ईश्वर भी अपनी शाश्वत प्रजा जीवात्माओं रूपी अपने अमृत पुत्र व पुत्रियों अर्थात् सभी मनुष्यों को माता-पिता व आचार्यों के समान सृष्टि के आरम्भ में वेदों का भाषा व अर्थ सहित ज्ञान पूर्व उल्लिखित चार ऋषियों की आत्माओं में सर्वान्तरयामी स्वरूप से देता है और उनको प्रेरणा कर अन्य सभी स्त्री पुरूषों को कराता है। वहीं से अध्ययन व अध्यापन की परम्परा का आरम्भ हुआ जो वर्तमान में भी विद्यमान है।
वेदों का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी के मनुष्यों को मिला था। प्राणियों की उत्पत्ति सहित संसार को बने हुए इस समय 1,96,08,53,115 वर्ष हो चुके हैं। अब से लगभग 5,225 वर्ष पूर्व महाभारत का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ था। इस युद्ध में जान व माल की भारी क्षति हुई थी। इस कारण शिक्षा व धर्म प्रचार तथा संगतिकरण आदि के कार्य भी बाधित हुए थे। इस कारण समय के साथ-साथ अज्ञान व अन्धकार बढ़ता रहा। मध्यकाल का समय घोर अज्ञान व अन्धकार का काल था। इस बीच सत्य वेदार्थ प्रायः कहीं भी विद्यमान न रहा। लोगों ने कपोल कल्पित मान्यतायें स्थापित कर उन्हें वेदों के नाम से समाज में प्रचलित कर दिया। अहिंसा का पालन करने वाले यज्ञों में पशुओं का वध किया जाने लगा। स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया गया। वेदों में स्पष्ट लिखा है कि वेदाध्ययन का अधिकार सभी मनुष्यों को समान रूप से है। वेद की इस व्यवस्था को भुला दिया गया। ऐसे अन्धकार के काल में भारत में और संसार के अनेक देशों में भी अन्धकार के फैले होने के कारण उस काल में मत-मतान्तर उत्पन्न हुए जिनमें कुछ सत्य था तो बहुत कुछ असत्य भी था। यही सत्यासत्य मिश्रित मत वर्तमान में भी विद्यमान हैं। भारत में भी इसी प्रकार के अनेक मत प्रचलित हैं जिनका आधार पुराण जैसे ग्रन्थ हैं। इन विषयों पर पर्याप्त साहित्य विद्यमान है जिसका अध्ययन कर सत्य को जाना जा सकता है। वर्तमान में नये-नये मत भी उत्पन्न हो रहे हैं जिसका कारण लोकैषणा, अज्ञान, लोभ व स्वार्थ आदि हैं, अन्य कोई कारण दृष्टिगोचर नहीं होता है। यह बात कुछ या बहुत ही विवेकशील लोग जानते हैं। धर्माधर्म विषयक सत् साहित्य के अध्ययन से इतर सामान्य व्यक्ति इन मतों की यथार्थ स्थिति को नहीं जान सकते। यदि सभी मतों के सिद्धान्तों की परीक्षा की जाये तो यह ज्ञात होता कि इन्हें न तो पूर्णतया ईश्वर के स्वरूप, उसके कार्य, भावना व व्यवहारों का ही ज्ञान है और न ही जीवात्मा का। इन्हें तो प्रकृति का भी ठीक प्रकार से ज्ञान नहीं है जैसा ज्ञान हमारे वेद व्याख्या के ग्रन्थों, दर्शनों व उपनिषदों आदि में विद्यमान है। इस संसार को उत्पन्न करने वाले ईश्वर का स्वरूप बताते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही एकमात्र ईश्वर उपासना के योग्य है और सभी मनुष्यों को उसी की उपासना करनी चाहिये। अन्य विद्वान पुरूष या महापुरूष संगति करने योग्य तो हो सकते हैं परन्तु नित्य उपासना करने योग्य तो एकमात्र और केवल एक सर्वव्यापक व निराकार ईश्वर ही है जिसके गुणों का ध्यान करना और उसके गुणों के अनुसार अपने जीवन को बनाना अथवा उसके गुणों को जीवन में धारण करना ही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है। यह ज्ञान वेदाध्ययन से प्राप्त होता है।
वेदों का सर्वाधिक महत्व का एक कारण हमारी दृष्टि में वेदों से प्राप्त ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष एवं इनकी प्राप्ति के साधनों आदि का यथार्थ ज्ञान व जानकारी है जो कि अन्य मतों के ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती है। हमारे ऋषियों ने वेदों के अंग व उपांग विषयक ग्रन्थों की रचना करके वेदाध्ययन को सरल बनाने का प्रयास किया है। इन अंगों व उपांगों, जिनका अध्ययन व ज्ञान वेदार्थ बोध में सहायक व अपरिहार्य है, के साथ वेदों का अध्ययन करने से सभी मनुष्यों को अपने जीवन के लक्ष्य व उसके साधनों का ज्ञान हो जाता है। इस अध्ययन से ज्ञात होता कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए यह हमारा मनुष्य जीवन हमें ईश्वर से मिला है। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर वेद मन्त्रों से युक्त ईश्वर का ध्यान व उपासना करने के लिए “सन्ध्या” नाम से एक पुस्तक की रचना की है। इसके समर्पण मन्त्र में वह लिखते हैं कि “हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।“ इस समर्पण मन्त्र में मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष बताया गया है और कहा गया है कि अनेक प्रकार से जप, उपासना आदि कर्मों को जो हम करते हैं, उसके परिणामस्वरूप ईश्वर अपने भक्त या उपासक को इन चारों पुरूषार्थ रूपी दिव्य घन व फल प्रदान करें। धर्म का अर्थ यहां यह है कि ईश्वर उपासक, भक्त या मनुष्य के जीवन में अधर्म पूर्णतः समाप्त हो जाये। वह कभी कहीं कोई अधर्म का काम न करें। वह जो भी कार्य करे वह सब के सब वेद सम्मत व धर्म कार्य हों। यह कार्य सन्ध्या व अग्निहोत्र आदि पंचमहायज्ञों सहित दूसरो की सेवा, परोपकार, हित चिन्तन, सन्मार्ग दर्शन, सहायता, सत्परामर्श आदि व ऐसे ही कार्य होने चाहिएं। हमें लगता है कि वेदों की यह बातें व परामर्श वेदों की संसार के मानवमात्र के लिए ईश्वर की ओर से सबसे बड़ी देनों में से एक देन है। इसलिए हम सभी मत-मतान्तरों को छोड़कर केवल वेदों की शरण में आकर चिर-शान्ति वा मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं और इसके साथ इस जीवन में सुखी व सन्तुष्ट रह सकते हैं। ‘नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।’ इस वेद-सूक्ति के अतिरिक्त जीवन को श्रेष्ठ बनाने का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। हमारी दृष्टि में यही वेदों का वेदत्व है और यही वेदों के ईश्वरत्व होने का प्रमाण भी है। अतः हमें अपने सभी प्रकार के अन्धविश्वासों व मिथ्या विश्वासों को तिलांजलि देकर वेद की शरण में आकर अपने जीवन को सफल करना चाहिये।
वेदों का इतना महत्व क्यों है? इसका एक कारण यह भी है कि वेदों ने ही यह बताया है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। यह बात विज्ञान को सिद्ध नहीं करनी पड़ी। यदि करनी पड़ती तो शायद वह इसे सिद्ध नहीं कर सकते थे? इस कारण कि आज भी हमारे प्रख्यात वैज्ञानिक ईश्वर के अस्तित्व एवं स्वरूप तथा उसकी कार्य प्रणाली के बारे में सर्वथा या अधिकांशतः विमुख व विरूद्ध ही हैं। यहां हम महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखित चार वेदों के आर्ष कोटि के भाष्य की भूमिका की चर्चा करना भी समीचीन समझते हैं। वेदों के प्रमाणों से सुसज्जित इस विख्यात ग्रन्थ में वेदों में वर्णित कुछ विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसके अध्यायों में वर्णित विषयों से ही पुस्तक का महत्व जाना जा सकता है। इस पुस्तक में वर्णित क्रमशः अध्याय हैं – ईश्वर प्रार्थना विषय, वेदोत्पत्ति विषय, वेदों के नित्यत्व पर विचार, वेदों में सम्मिलित विषयों पर विचार यथा विज्ञान, कर्म, यज्ञ आदि, वेद संज्ञा विचार, ब्रह्रम् विद्या, वेदोक्त धर्म, सृष्टि विद्या, पृथिव्यादि लोकों का भ्रमण, आकर्षण-अनुकर्षण, प्रकाश्य-प्रकाशक लोक आदि, गणित विद्या, स्तुति-प्रार्थना-याचना व समर्पण, उपासना विधान, मुक्ति, समुद्र-यान व वायुयान आदि विद्या, तार विद्या, वैद्यक वा चिकित्सा शास्त्र, पुनर्जन्म, विवाह, नियोग, राजा व प्रजा के धर्म वा कर्तव्य, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम विषय, पंच-महायज्ञ विषय, ग्रन्थ-प्रमाणाप्रमाण विषय, अधिकार-अनाधिकार विषय, पठनपाठन आदि अनेक विषयों का वर्णन है। इसके लिए इस ग्रन्थ को देख व पढ़कर ही इसके महत्व से परिचित हुआ जा सकता है। हमारे अनुमान में इस ग्रन्थ व सत्यार्थ प्रकाश के समान ग्रन्थ विश्व के साहित्य में नहीं है।
इसी क्रम में हम महर्षि दयानन्द के एक ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का वर्णन भी करना चाहते हैं। इस ग्रन्थ का आधार भी मुख्यतः वेद ही है। इस ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अनेकानेक विषयों को स्पष्ट किया है। यह सर्वथा मौलिक ग्रन्थ है जिसमें लेखक ने तीन हजार से अधिक प्रमाणिक ग्रन्थों का अध्ययन कर अपनी मान्यताओं के समर्थन में सहस्राधिक ग्रन्थों से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इन प्रमाणों व ग्रन्थों से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने सत्य के अनुसंधान में कितना पुरूषार्थ किया था। संसार का कोई भी देश और आज का कोई भी मत-सम्प्रदाय सत्य के अनुसंधान की दृष्टि से वैदिक साहित्य से स्पर्धा नहीं कर सकता। अन्य मतों व पन्थों में धर्म व सत्य की व्याख्या में जिन ग्रन्थों का प्रणयन उनके विद्वानों ने किया है वह वेदों की तुलना में अत्यन्त न्यून व तुच्छ है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश में हमें महर्षि दयानन्द की वेदों से उत्पन्न मनीषा व प्रज्ञा एवं तीव्र ऊहापोह वाली बुद्धि के दर्शन होते हैं जिससे अनेक स्थलों को पढ़कर रोमांच हो आता है और महर्षि दयानन्द के विषयों के आंकलन व सत्य के उद्घाटन को देख कर उन पर ईश्वर की कृपा का अनुभव व अनुमान भी होता है। उन्होंने वह कार्य किया है और वह ज्ञान दिया है जो महाभारत काल के बाद कोई धर्माचार्य व महापुरूष नहीं दे सका। इसी कारण महर्षि दयानन्द विश्वगुरू व जगदगुरू शब्दों को अपने व्यक्तित्व में सही अर्थों में चरितार्थ करते हुए सिद्ध होते हैं। वह दिग्विजयी धर्मवेत्ता सत्य व विज्ञान के संवाहक, न भूतो न भविष्यति उपमा से सुशोभित महापुरूष भी थे।
हमने महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रदत्त वेद ज्ञान के आलोक में इस लेख में वेदों का अध्ययन व अध्यापन सब मनुष्यों का परम धर्म है, इस विषय में कुछ विचार किया है। वेदों का अध्ययन करके एवं इन विचारों व मान्यताओं के अनुसार जीवन को बनाने से ही मानव जाति का कल्याण हो सकता है। पाठकगण अपनी प्रतिक्रियाओं से कृतार्थ करें। इन शब्दों के साथ हम महर्षि दयानन्द के 23 अक्तूबर, 2014 को 132 वें निर्वाणोत्सव पर उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि भेंट करते हैं और ‘महर्षि तेरे अहसां को न भूलेगा जहां वर्षों, तेरी रहमत के गीतों को ये गायेगी जुबां बरसों।’इन पंक्तियों से लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख.
धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी। दीपावली की आपको शुभ कामनाएं।