मुमुक्षु स्वामी दयानन्द ने दीपावली को देहत्याग के लिए क्यों चुना?
दयानन्द आर्य समाज के संस्थापक हैं। आप विश्व के इतिहास में सर्वोत्तम वेदवेत्ता, वेदज्ञ, वेद प्रचारक, वेदोद्धारक, वेदभक्त, वेदमूर्ति, वेदर्षि, वेदभाष्यकार, वेदपुरूष, वेदपुत्र, वेदरक्षक तथा वेदों को ईश्वर प्रदत्त ज्ञान मानने व अपनी इस मान्यता को तर्क, प्रमाण से सत्य सिद्ध करने वाले अपूर्व महापुरूष हैं। इन गुणों के साथ आप महान देशभक्त, देश को सर्वप्रथम स्वराज्य वा आजादी का विचार देने वाले, स्वराज्य को सुराज्य से वरीयता देने वाले, स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक, एतिहासिक ऋषियों मनु, पतंजलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी आदि के प्रति श्रद्धावान, अपने गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द के प्रिय, स्वयं व अपने गुरू की यश व कीर्ति को दिग्दिगन्त फैलाने वाले, सिद्ध योगी व योगेश्वर, सत्य के सबसे बड़े आग्रही, सत्य को ही धर्म का पर्याय मानने वाले, अद्वितीय और अपूर्व समाज संशोधक एवं सुधारक, निर्बलों के बल, अछूतोद्धार के पितामह व जनक, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार प्रदान करने वाले, नारी सम्मान व उसकी मान मर्यादा के रक्षक, नारी उद्धारक, मानव मात्र की समानता के पोषक व जुझारू आन्दोलनकर्ता, अज्ञान-अन्धविश्वास-कुरीति-अन्याय निवारक व वाणी व तर्क द्वारा इनके खण्डनकर्ता आदि अनेकानेक गुणों से विभूषित व परिपूर्ण महापुरुष थे। आप एक ऐसे महापुरूष भी थे जिन्होंने “न भूतो न भविष्यति” की कहावत को अपने जीवन में अपने ज्ञान, योग्यता, तप व कार्यों से चरितार्थ किया। वेदों का पुनरूद्धार करके आपने विश्व मानवता की जो सेवा की है उसका मूल्यांकन करना असम्भव है। हम उनके इस वेदोद्धार के कार्य पर संक्षेप में विचार करना आवश्यक समझते हैं। वेद मनुष्य का सर्वस्व हैं। ऐसा वेद कैसे है? इस प्रकार से कि वेद ही ईश्वर द्वारा आदि मनुष्यों व हम सब के पूर्वजों को दिया गया आदि ज्ञान, आदि भाषा व आदि वाणी की पुस्तकें हैं। यदि वेद न होते तो मनुष्य कभी बोल भी न सकते। इसका कारण यह है कि नैमित्तिक ज्ञान सीखने से व ऊहा से ही प्राप्त होता है। ऊहा के लिए किसी भाषा का ज्ञान व बोलना आना आवश्यक है। विचार व चिन्तन करने पर विदित होता है कि यदि आरम्भ में ईश्वर ने संस्कृत भाषा न दी होती तो मनुष्य कभी भी स्वयं व सभी मिलकर भी भाषा की उत्पत्ति व रचना नहीं कर सकते थे। ऐसा इस उदाहरण से विदित होता है कि यदि दुर्भाग्य से किसी शिशु की माता जन्म देने के बाद दिवंगत हो जाये और उस सन्तान की परवरिश करने वाला परिवार में कोई न हो तो वह बच्चा अपने पैरों से चलना व बोलना कभी भी नहीं सीख सकता। उस शिशु की मृत्यु निश्चित होती है। इसी प्रकार से यदि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर युवा स्त्री व पुरूषों को उत्पन्न करने के बाद उन्हें भाषा सहित वेदों का ज्ञान न देता तो वह मनुष्य न तो भाषा बना सकते, न बोलना सीखते और न ही किसी प्रकार की उन्नति कर सकते थे। नैमित्तिक ज्ञान के लिए भी हमें गुरू, आचार्य, माता-पिता की आवश्यकता होती है। सृष्टि के आरम्भ में यह लोग नहीं थे। अतः यह सुनिश्चित है कि सृष्टि के आरम्भ में सृष्टिकर्ता ईश्वर ने ही पहली पीढि़यों के मनुष्यों को भाषा सहित वेदों का ज्ञान दिया था। वह ज्ञान महाभारत काल तक निर्बाद्ध रूप से पल्लवित, पुष्पित व फलता-फूलता रहा परन्तु महाभारत के भीषण युद्ध के बाद अव्यवस्था व कुव्यवस्थाओं के कारण वह आंशिक रूप से विलुप्त हो गया जिससे धीरे-धीरे संसार में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, अन्याय व कुरीतियों में वृद्धि होती रही और इसी का परिणाम हमारी यवनों व अंग्रेजों की गुलामी थी। वेद का महत्व इस कारण भी है कि यह ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान है जिसमें इतिहास किंचित भी नहीं है और समस्त पुस्तक आघ्यात्म, विज्ञान, सामाजिक ज्ञान, यज्ञ, उपासना व नाना शिक्षाओं आदि अनेकानेक विषयों पर तथ्यात्मक व स्वतः प्रमाण ज्ञान से परिपूर्ण है। आज ज्ञान व विज्ञान ने जितनी भी उन्नति की है उस सबका मूल आधार वेद ही है।
महर्षि दयानन्द ने वेदों का पुनरूद्धार कर वेदों के सत्य अर्थों का देश भर में व देश से बाहर भी प्रचार किया। उन्होंने संस्कृत के साथ हिन्दी का भी भरपूर सहयोग लिया या यह कह सकते हैं कि उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी साहित्य को भी समृद्ध किया। सदियों से जो वेद केवल एक वर्ग के अधिकार में थे, उन वेदों तक, सृष्टि के 1 अरब 96 करोड़ वर्षों के इतिहास में पहली बार आम आदमी की पहुंच हो गई। इससे ज्ञात हुआ कि वेदों के नाम पर स्वार्थी लोगों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये मिथ्या मान्यतायें आम लोगों में प्रचलित कर रखीं थीं जो वेदों के साथ-साथ देश के पराभव का भी कारण सिद्ध हुईं। वेदों के पुनरूद्धार व सत्य वेदार्थ से समाजोत्थान की नींव पड़ी। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से आर्य समाज ने देश भर में धड़ाधड़ गुरूकुल एवं दयानन्द ऐंग्लों वैदिक कालेज खोले। इस क्रान्तिकारी कार्य से देश में अज्ञान का अन्धकार दूर होकर ज्ञान का प्रकाश फैला। स्वामी दयानन्द ने यज्ञ करने और यज्ञोपवतीत धारण करने का भी सभी द्विजों के साथ स्त्रियों व शूद्रों को भी अधिकार प्रदान किया जिससे स्त्री व शूद्र वर्ण के सभी आर्यजनों ने वेद मन्त्रोच्चार से यज्ञ करना आरम्भ कर दिया। यह सभी कार्य महर्षि दयानन्द के क्रान्तिकारी कार्य थे। आर्य समाज के मन्दिरों में प्रवेश के लिए जाति व धर्म की कोई बाधा नहीं थी। न केवल पौराणिक हिन्दुओं ने ही अपितु ईसाई व मुसलमानों सहित बौद्धों एवं जैनियों ने भी आर्य वैदिक धर्म को स्वीकार किया और अनेकों ने बढ़-चढ़ कर वेद प्रचार का कार्य किया। सदियों से चली आ रही अछूत व अस्पर्शयता की समस्या कमजोर पड़ कर समाप्त प्रायः हो गई। आर्य समाज ने कन्या विद्यालयों का भी शुभारम्भ कर समाज को नई दिशा दी। जो लोग स्त्री शिक्षा के विरोधी थे उन्होंने भी देखा-देखी कन्या पाठशालायें खोलकर आर्य समाज का अनुसरण किया और स्वयं की कन्याओं को भी आर्य कन्या पाठशालाओं में पढ़ाया। धार्मिक क्षेत्र में आर्य समाज ने मूर्तिपूजा का खण्डन किया। काशी में देश के 30 से अधिक शीर्षस्थ पण्डितों से मूर्तिपूजा पर अकेले शास्त्रार्थ किया और उन्हें पराजित किया। वेदों में मूर्तिपूजा का विधान सिद्ध न हो सका। बड़ी संख्या में लोगों ने स्वामी दयानन्द से प्रभावित होकर मूर्तिपूजा को छोड़कर आर्य धर्म को स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार से मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति-पाति, बेमेल विवाह आदि अनेकानेक कुप्रथाओं का खण्डन कर उन्हें समाप्ती के कागार पर पहुंचाने के साथ विधवाओं के पुनर्विवाह तथा युवावस्था में ही कन्याओं का उनके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप युवकों से विवाह का समर्थन व प्रचार किया जिससे भारतीय हिन्दू समाज में नई चेतना व जोश उत्पन्न हुआ तथा विधर्मियों के मनसूबे धूलिसात हो गये।
स्वामी दयानन्द ने योग को भी उपासना में सर्वोपरि महत्व दिया और बताया कि ईश्वर की पूजा की सही विधि केवल योगाभ्यास द्वारा ईश्वर के गुणों का ध्यान व धन्यवाद करना ही है जिसके लिए प्रातः व सायं काल में सिद्धासन या पद्मासन आदि किसी आसन में बैठ कर ध्यानावस्थित होकर ईश्वर उपासना करनी चाहिये। पौराणिकों द्वारा मन्दिरों में की जाने वाली षोडशोपचार वाली पूजा पद्धति को उन्होंने अनुचित, अशास्त्रीय, अनावश्यक एवं प्रयोजन रहित बताया। उनके जीवन काल सन् 1825-1883 में लोग अग्निहोत्र यज्ञ करना भूल चुके थे। स्वामी दयानन्द ने अग्निहोत्र यज्ञ का वैज्ञानिक व पर्यावरणीय महत्व समझाया और यज्ञ करने की वेद सम्मत विधि बनाकर देशवासियों को दी जिससे आरम्भ होकर आज देश भर में यज्ञ प्रचलित हो गये हैं। यज्ञ का उद्देश्य पर्यावरण की शुद्धि, रोग के किटाणुओं का नाश, स्वास्थ्य लाभ, रोगों का नाश तथा इच्छानुसार वर्षा होने के साथ मनुष्य की सभी उचित मनोकामनाओं की पूर्ति का होना भी है। उनके आने से पूर्व यज्ञों में हिंसा होती थी एवं गाय आदि पशुओं को भी मारा जाता था। इसके विरूद्ध वेदों की व्यवस्था देकर उन्होंने यज्ञों को हिंसा से मुक्त किया। यदि महर्षि दयानन्द भगवान बुद्ध के पूर्व आये होते तो बौद्ध धर्म की स्थापना न हुई होती जिसका कारण मुख्यतः यज्ञों में हिंसा किया जाना ही था। गुरूकुल की स्थापना से वेदाध्ययन को बढ़ावा मिला। उनके इस कार्य से देश में पहले भी और आज भी अनेक वेदों के विद्वान व वेद भाष्यकार हमारे पास हैं जिन पर हम गर्व कर सकते हैं। स्वामी दयानन्द एक ईश्वर, सभी मनुष्यों का एक धर्म, वेद ही एकमात्र पूर्ण धर्म पुस्तक और सबकी विचारधारा एक हो, इसका उद्घोष कर उन्होंने समाज व विश्व को एक नया विचार दिया जिसके क्रियान्वयन होने पर देश विदेश के आपसी अनेक झगड़े, अशान्ति व विवाद समाप्त हो सकते हैं। यह सभी बाते उनके वेद प्रचार का हिस्सा हैं। इन सभी कार्यों के लिए उन्होंने उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शंका समाधान, शास्त्रार्थ, अनेक विषयों के ग्रन्थों का लेखन, वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य व भावार्थ आदि कार्य किये। उनके प्रमुख व प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, ऋग्वेद संस्कृत-हिन्दी भाष्य आंशिक एवं यजुर्वेद संस्कृत-हिन्दी भाष्य सम्पूर्ण, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, व्यवहार भानु, उपदेश मंजरी एवं उनका समस्त पत्रव्यवहार आदि। उन्होंने वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार करने के लिए अपने एक सुयोग्य शिष्य पं. श्यामजीकृष्ण वर्मा को लन्दन भेजकर विश्व में वेद प्रचार द्वारा वैदिक धर्म के प्रचार की नींव रखी। जर्मनी के प्रो. वाइज से पत्रव्यवहार कर उन्होंने भारतीय युवकों को शिल्पकला व प्रौद्योगिकी का प्रशिक्षण देने का प्रयत्न किया जिससे देश को औद्योगीकरण करके युवकों को व्यवसाय दिलाया जा सके और देश आगे चलकर आत्मनिर्भर हो सके। गोरक्षा का प्रश्न भी देश वासियों के स्वास्थ्य और देश की अर्थ व्यवस्था से जुड़ा है। इसके लिये उन्होंने गोकृष्यादि रक्षिणी सभा बनाने के साथ एक अपूर्व पुस्तक “गोकरूणानिधि” लिख कर गो का धार्मिक व आर्थिक महत्व सिद्ध किया। आज भी इस विषय पर अनुसंधान किये जाने की आवश्यकता है। स्वामी दयानन्द की एक बहुत बड़ी देन यह भी है कि उन्होंने सृष्टिकर्ता ईश्वर तथा जीवात्मा के सत्य स्वरूप से सारी दुनिया, विशेषकर भारत के लोगों को परिचित कराया जिसको उन दिनों कहीं कोई जानता ही नहीं था अथवा सभी इसे भूल चुके थे। यही स्वरूप यदि यूरोप के प्रमुख धर्म ग्रन्थ बाइबिल में विद्यमान होता तो हमारा अनुमान है कि पश्चिमी जगत के वैज्ञानिक नास्तिक न होते। धर्म ग्रन्थ में विद्यमान तर्कहीन स्वरूप के कारण ही हमारे वैज्ञानिकों ने ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया। यह ऐसा ही हुआ जैसे यज्ञों में हिंसा को देख कर भगवान बुद्ध ने वेदों को मानने से मना कर दिया था। जब उन्हें कहा गया कि वेद तो ईश्वर के दिये हुए हैं, तो उन्होंने वेदों को देने वाले ईश्वर को भी मानने से इनकार कर दिया था।
महर्षि दयानन्द देश भर में घूम-घूम कर वेद ज्ञान का प्रचार कर रहे थे। अज्ञानी व स्वार्थी लोगों को उनके कार्य अपनी इच्छाओं व स्वार्थों की पूर्ति में बाधक प्रतीत हो रहे थे। कोई उनका विरोधी उन्हें विष देता था तो कोई उन पर घूल व पत्थर फेंकता था। उन पर सांप फेंके गए और उनकी हत्या तक के प्रयास भी किये गये। लगभग 18 बार उन्हें विष देकर मार डालने का प्रयास किया गया। यौगिक क्रियाओं में अभ्यस्त होने से वह उन्हें दिए गए विष को निकाल देते थे। वेद प्रचार करते हुए उनका जोधपुर रियासत में जाने का कार्यक्रम बना जहां के लोगों में अज्ञान व अन्धविश्वास के साथ-साथ वहां का राजा जसवन्तसिंह भी व्यभिचार आदि अनाचार से ग्रस्त था। स्वामीजी ने सभी समाजिक बुराईयों का पुरजोर खण्डन किया। परिणाम यह हुआ कि राजा की प्रिय वैश्या नन्ही भगतन क्रुद्ध हो गई। उसने स्वामीजी मिटाने के लिए गुपचुप योजना बनाई। अंग्रेज भी स्वामी दयानन्द को अन्दर ही अन्दर अपनी योजनाओं में बाधक समझते थे। यत्र-तत्र मुसलमान भी उनका विरोध करते थे। सैयद अहमद खां, डा. रहीम खां आदि कुछ समझदार मुसलमान उनके भक्त या सहयोगी भी रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में स्वामीजी को मारने का विरोधियों ने षडयन्त्र रचा। उन्हें जोधपुर प्रवास में विष दिया गया जो 30 अक्तूबर सन् 1883 को दीपावली के दिन उनकी मृत्यु का कारण बना। स्वामीजी की मृत्यु का दिन व समय स्वामीजी ने स्वयं चुना और एक शिक्षाप्रद उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी जीवन लीला समाप्त की।
मुख्य प्रश्न यह है कि स्वामी जी ने दीपावली के दिन को अपनी जीवन के पटाक्षेप के लिए क्यों चुना? इस प्रश्न पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि दीपावली पर्व कार्तिक अमावस्या के घोरतम अन्धकार के दिन रात्रि में दीपकों को जलाकर प्रकाश करके मनाया जाता है। प्रकाश जीवन का और अन्धकार मृत्यु का प्रतीक है। इसी प्रकार से प्रकाश ज्ञान का और अन्धकार अज्ञान का भी प्रतीक है। जहां ज्ञान है वहां प्रकाश है और जहां अज्ञान है वहां अन्धकार है। स्वामीजी को विष दिये जाने के कारण उनका स्वास्थ्य दिन प्रति गिर रहा था। वह अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। शरीर तो उनको छोड़ना ही था, अन्यथा वह स्वयं छूट जाता। उन्होंने जीवन भर ईश्वर उपासना रूपी जिस योग विधि का अभ्यास किया था उससे योगी को यह बल प्राप्त हो जाता है कि वह शरीर के दुर्बल होने व जरावस्था होने पर ईश्वरोपासना करते हुए अपना शरीर छोड़ दे। स्वामी दयानन्द वेदों का प्रचार करते थे। वेद और दयानन्द एक दूसरे के पर्याय बन चुके थे। वेद अर्थात् ज्ञान, ज्ञान अर्थात् स्वामी दयानन्द तीनों पर्याय थे। स्वामी दयानन्द की मृत्यु से एक प्रकार से वेद प्रचार का देशोन्नति व मनुष्योन्नति का कार्य अवरूद्ध होना था। अतः स्वामी दयानन्द की मृत्यु ज्ञान रूपी प्रकाश के बुझने या लुप्त होने के समान एक घटना है। यह एक कारण भी महर्षि दयानन्द द्वारा अपनी मृत्यु के लिए इस दिन को नियत करने के पीछे हो सकता है। अन्य विद्वानों की सम्मितियां कुछ भिन्न व अधिक सटीक हो सकती हैं। हमें अपनी ऊहा से जो कारण ज्ञात हुआ उसे हमने प्रकट किया है। मृत्यु के दिन स्वामीजी ने अपने शिष्यों से दिन व वार पूछा था। शिष्यों ने बताया था कि उस दिन कार्तिक मास की अमावस्या और दीपावली का दिन था। स्वामीजी ने इस दिन को मृत्यु वा मोक्ष के वरण के लिए उपयुक्त समझा। नाई को बुलाकर स्वामीजी ने अपना क्षौर कर्म कराया फिर जल से शरीर को स्वच्छ किया और शुद्ध व स्वच्छ वस्त्र धारण किये। अपने प्रिय शिष्यों से बातें की और उनका ढ़ांढ़स बढाया। उन्हें शिक्षा दी और उपहार दिये। सायं लगभग 6 बजे जब सूर्यास्त हो रहा था, अजमेर में भिनाए की कोठी नामक अपने निवास पर उपस्थित सभी लोगों को उन्होंने अपने पीछे आने के लिए कहा। फिर ईश्वर की प्रार्थाना विषयक वेद मन्त्रों का पाठ किया और हिन्दी भाषा में भी ईश्वर से प्रार्थना की। इसके बाद अन्तिम वाक्य बोले कि हे ईश्वर ! तुने अच्छी लीला की, अहा, तुने अच्छी लीला की, तेरी इच्छा पूर्ण हो। यह कह कर लम्बी श्वांस ली और इसी के साथ अपनी आत्मा को शरीर से बाहर निकाल दिया। हमने स्वामी दयानन्द जी को “मुमुक्षु महर्षि दयानन्द” लिखा है। शास्त्रों के अनुसार योगाभ्यास द्वारा समाधि अवस्था की प्राप्ति और ईश्वर का साक्षात्कार हो जाने पर उपासक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। स्वामी दयानन्द जी एक सिद्ध योगी थे और उन्होंने अनेकानेक बार ईश्वर का साक्षात्कार किया था जो उनके साहित्य के अघ्येता भली प्रकार जानते हैं। अतः वह बहुत पहले ही मोक्ष के द्वार पर पहुंच चुके थे। उनके जीवन में पूर्व घटित घटना के अनुसार उन्हें यह अनुभव हो चुका था कि जीवन में उन्होंने जो पाना था वह पा चुके हैं तथापि वह आर्ष ज्ञान के लिए प्रयत्नशील थे और वह भी उन्हें अपने गुरू दण्डी विरजानन्द स्वामी जी से प्राप्त हो गया था। यह भी एक संयोग था कि मोक्ष रूपी अपनी मृत्यु से पूर्व वह अपनी वसीयत लिख चुके थे जिसके अनुसार एक परोपकारिणी सभा का गठन किया गया था जो उनके सर्वस्व की अधिकारिणी संस्था थी। स्वामीजी ने सभा से जो अपेक्षायें की थी वह अभी पूरी नहीं हुईं हैं। उन्होंने सभा को जो दायित्व सौंपा है वह ईश्वर का कार्य है। वह कब व कैसे तथा किससे व किनसे उसे पूरा कराता है, उसे जानना सम्भव नहीं है। दीपावली का पर्व महर्षि दयानन्द के निर्वाण व मोक्ष का पर्व भी है। इस अवसर पर हम महर्षि को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और देश वासियों को दीपावली की शुभकामनायें भेंट करते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य