वेद और भाई-दूज का पर्व
कार्तिक अमावस्या दीपावली के बाद शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन भाई दूज का पर्व देश भर में मनाया जाता है। यह पर्व भाई व बहिन के प्रेम, स्नेह, समर्पण, परस्पर रक्षा, सहयोग, सहायता, सेवा, शुभकामना, आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे के लिए त्याग व बलिदान का प्रतीक है। इसका जब आधार खोजने का प्रयास किया गया तो इसका मूल व आधार हमें वेद में प्राप्त हुआ। वेद का एक प्रसिद्ध मन्त्र है – “मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।“ वेद के इस मन्त्र में कहा गया है कि कोई भी भाई अपने भाई के साथ कभी द्वेष न करें। कोई भी बहिन अपनी बहिन से द्वेष कभी न करे। बहिन-भाई भी परस्पर द्वेष न करें। सभी बहिन व भाई परस्पर प्रेम आदि गुणों ये युक्त होकर एक दूसरे के मंगल व कल्याण की भावना वाले होकर मंगलकारक रीति से एक दूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करें। इसको इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि सभी भाई अपने भाईयों से हमेशा प्रेम करें व एक दूसरे को आदर व सम्मान दें। सभी बहिनें अपनी बहिनों से हमेशा प्रेम व सम्मानजनक व्यवहार करें। बहिन-भाई भी परस्पर प्रेम व सद्भावनापूर्ण व्यवहार करें। सभी बहिन व भाई द्वेष, स्वार्थ, अन्यमस्कता व शत्रुता आदि के व्यवहार का पूर्णतया त्याग करके परस्पर सच्चे हार्दिक प्रेम से पूर्ण सभी सद्गुणों आदि से युक्त होकर एक दूसरे के मंगल व कल्याण की भावना वाले होकर मंगलकारक रीति से एक दूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करें। यह मंगलकारक रीति ही इस पर्व का आधार प्रतीत होती है।
आज समाज में देखा जाता है कि जब तक बच्चे छोटे होते हैं तो उनमें परस्पर प्रेम व स्नेह भरपूर होता है। बाल्यकाल में भाई से भाई, बहिन से बहिन तथा बहिन-भाई परस्पर त्याग भावना से प्रेमपूर्वक व्यवहार करते हैं और सबमें एक दूसरे के प्रति दृण प्रेम बन्धन होता है। एक दूसरे के सुख में सुखी व एक दूसरे के दुःख में दुःखी होते हैं। परन्तु आयु बढ़ने के साथ बहिनों को भी और भाईयों को भी नई-नई समस्याओं से जूझना व गुजरना पड़ता है और परिवर्तित परिस्थितियों में ढ़लना पड़ता है। देश, काल व परिस्थितियों के कारण इन प्रेम सम्बन्धों में कुछ कमी सी अनुभव होने लगती है। युवावस्था में बहिन व भाई का विवाह होने के बाद नई परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं। दोनों की ही पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ जाती है। फिर सन्तानों के जन्म से जिम्मेदारियों में और वृद्धि होने से मनुष्य अपने सम्मुख उपस्थित समस्याओं व उनके निराकरण एवं समाधान के बारे में ही सोचता रहता है। यह आवश्यक नहीं की सभी व्यक्तियों की आर्थिक स्थिति सदैव अच्छी ही रहे। उसे बहुत अधिक परिश्रम करना होता है। कुछ व अधिकांश मामलों में इतना कुछ करने पर भी सभी आवश्यकतायें व इच्छायें पूरी नहीं होती जिसका प्रभाव भाई-भाई, बहिन-बहिन तथा भाई-बहिन के सम्बन्धों पर पड़ता है। सबका परस्पर मिलना-जुलना कम व बन्द हो जाता है। ऐसी स्थिति में भाई व बहिन के सम्बन्ध को बनाये रखने के लिए हमें लगता है कि “भाई-दूज” का पर्व या त्यौहार अपनी भूमिका निभाता है। इस दिन सरकारी विभागों में तो राजपत्रित या निर्बन्धित अवकाश भी होता है। अतः इसका लाभ उठाकर बहिन भाई के घर या भाई बहिन के पास जाकर परस्पर मिलकर, एक दूसरे के सुख व दुःख जानकर, परस्पर सहयोग कर, स्वादिष्ट भोजन व मिष्ठान्न आदि का सेवन कर तथा भाई की ओर से बहिन को सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र, आभूषण, उपयोगी उपहार व कुछ धन देकर इस पर्व को मनाते हैं। हमें लगता है कि पूर्व काल में तो इस पर्व का अपना महत्व रहा ही है परन्तु आज की परिस्थितियों में इसका महत्व और अधिक हो गया है। इस दिन यदि बहिन व भाईयों में किसी कारण कुछ मनमुटाव होकर परस्पर दूरियां बढ़ गई हों, तो परस्पर समझदारी का परिचय देकर उन्हें भी दूर किया जा सकता है। अतः आज इस भैया-दूज के पर्व को मनाने में हमें इसकी महत्ता, प्रासंगिकता व उपयोगिता अनुभव होती है और हमारा विचार है कि सभी पाठक हमारे विचारों से सहमत होंगे।
ईश्वर प्रदत्त वेद मन्त्र कह रहा है कि भाई भाई से, बहिन बहिन से और भाई व बहिनें परस्पर द्वेष न करें। इसका अर्थ है कि यह सब अपने जीवनों में परस्पर प्रेम व त्याग का उदाहरण प्रस्तुत करें और इसी लक्ष्य की प्राप्ति व इसे स्थिर रखने के लिए ही भारतीय संस्कृति में इस पर्व की कल्पना को साकार रूप प्रदान किया गया है। हमें लगता है कि आर्येतर व देश व संसार के सभी अहिन्दुओं को भी इस पर्व की सार्थकता के कारण इसे मनाना व अंगीकृत करना चाहिये और “देर आये दुरस्त आये” की कहावत को चरितार्थ करना चाहिये। वेदों के अनुसार जीवन सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए ही तो परमात्मा से मिला है। अतः इसी भावना से मनुष्यमात्र को इस पर्व को मनाना चाहिये। इस पर्व को मनाने से परिवारों व समाज में प्रेम व सौहार्द में वृद्धि होगी और आसुरी प्रवृतियों में कुछ कमी आ सकती है। वेद मन्त्र में अगला सन्देश है कि सभी बहिन व भाई परस्पर प्रेम आदि गुणों ये युक्त होकर एक दूसरे के मंगल व कल्याण की भावना वाले होकर मंगलकारक रीति से एक दूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करें। वेदमन्त्र की यह शिक्षा आज के दिन आत्म निरीक्षण का अवसर प्रदान करती है। इस दिन सभी भाई व बहिनों को वेद की इस शिक्षा पर विचार करना चाहिये कि क्या वह वेद की इस शिक्षा के अनुकूल व अनुरूप व्यवहार कर रहें हैं या नहीं। यदि नही तो इस शिक्षा के अनुसार अपने जीवन व व्यवहार में परिर्वतन व संशोधन करना चाहिये। हम समझते हैं कि 1 अरब 96 करोड़ 8 हजार वर्ष पूर्व ईश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई यह शिक्षा आज की प्रासंगिक, उपयोगी एवं व्यवहारिक है। इस दिन हमें अपने जीवन के लक्ष्य व साधनों से परिचित कराने वाले वेदों के अध्ययन का व्रत भी लेना चाहिये।
— मनमोहन कुमार आर्य
अच्छा लेख.
हार्दिक धन्यवाद मान्यवर श्री विजय कुमार सिंघल जी। ।
मनमोहन भाई , लेख बहुत अच्छा है . अगर इस पर चला जाए तो जिंदगी सुख्दाएक हो सकती है लेकिन सचाई यह है कि जब यह वेद लिखे गए थे तब लोगों की सोच भी इलाग्ग थी , संस्कृति इलाग्ग थी , गरीबी थी , जिंदगी साधारण और आसान थी . अब ज़माना इतना बदल चुक्का है कि यह सब अकेले भारत में ही नहीं बल्कि सारी दुनीआं में बदलाव आ चुक्का है , ख़ास कर पिछले बीस पचीस वर्ष से ज़माना एक सदी जितना जम्प कर गिया है , वजह है इन्टरनेट का आगाज़ . अब इंसान पैसे के पीछे भाग रहा है , ज़िआदा से ज़िआदा एजुकेशन ले रहा है , सभी दौड़ रहे हैं , साँसें फूल रही हैं , वक्त की कमी हो रही है . आये दिन रेप केस पड़ने सुनने को मिल रहे हैं , भाई बहन से , पिता बेटी से . रिश्ते की कोई ऐह्मिअत नहीं रही . यह सब देख कर केवल दुःख ही दुःख मिलता है . रही सही कसर इंटरनेट पर अश्लील फ़िल्में देख कर हो रही है . लेकिन फिर भी हमारी कोशिशें जारी रहनी चाहियें ताकि इन रिश्तों को काएम रखा जा सके .
लेख की प्रसंशा के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह भमरा जी। मै आपके विचारों से सहमत हूँ। सब कुछ जानते समझते हुए भी प्रयास यह है कि आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा हो। इसका एक कारण यह भी है कि यह हमारे भी भावी जीवन व जन्म से जुड़े हुए हैं। आपका पुनः हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।