शंका समाधान
शंका – ९ वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने संतानों का उपनयन करके आचार्यकुल में अर्थात जहाँ पूर्ण विद्वान और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हो अर्थात वहाँ लड़के और लड़कियो को भेज दें और शूद्र आदि वर्ण उपनयन किये बिना विद्याभास के लिए गुरुकुल में भेज दे।- सत्यार्थ प्रकाश
यहाँ पर यह शंका की जाती हैं कि स्वामी दयानंद ने द्विज से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का ग्रहण किया हैं एवं उनके उपनयन संस्कार करने का विधान बताया हैं एवं शूद्र को उपनयन संस्कार से वंचित रखा हैं।
समाधान- सत्यार्थ प्रकाश में इस विषय में सबसे पहले स्वामी दयानंद की इस मान्यता को समझ लेना अत्यंत महत्वपूर्ण हैं कि स्वामी जी जन्मना वर्ण को नहीं मानते अपितु वर्ण के निर्धारण के विषय में लिखते हैं की ” यह गुण कर्मों से वर्णों कि व्यवस्था कन्याओं की सोहलवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिए-सत्यार्थ प्रकाश।”
अर्थात शूद्रों के घर में जन्मा बालक ब्राह्मण भी हो सकता हैं, क्षत्रिय भी हो सकता हैं, वैश्य भी हो सकता हैं और शूद्र भी हो सकता हैं इसी प्रकार से ब्राह्मण के बालक ब्राह्मण भी हो सकता हैं, क्षत्रिय भी हो सकता हैं, वैश्य भी हो सकता हैं और शूद्र भी हो सकता हैं। इस वर्ण का निर्धारण शिक्षा सम्पूर्ण होने के पश्चात होता हैं नाकि जन्म गृह में माता पिता के वर्ण के आधार पर होता हैं।
आज समाज में डॉक्टर,इंजीनियर आदि सभी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात बनते हैं नाकि अपने माता पिता की योग्यता के आधार पर बनते हैं। जहाँ तक उपनयन की बात हैं स्वामी जी ने अत्यंत व्यवहारिक बात करी हैं। शूद्रों के यहाँ पर उपनयन क्या कोई भी संस्कार नहीं होता था। ब्राह्मण लोग छुआछूत के चलते शूद्रों के घरों में संस्कार आदि नहीं करवाते थे। संस्कार तो दूर शूद्रों का दर्शन, छूना, उनके साथ भोजन करना आदि सब वर्जित था। ऐसे वातावरण में न शूद्रों का उपनयन होता और न ही उन्हें शिक्षा मिल पाती। बिना शिक्षा के वे सदा शूद्र ही बने रहते।
इसलिए स्वामी दयानंद ने घर पर होने वाले संस्कार में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को उनके परिवार की परम्परा के अनुसार संस्कार कर शिक्षा प्राप्त करने का विधान लिखा और शूद्रों को पुरोहित की अनुपलब्धता के चलते बिना संस्कार के ही गुरुकुल में प्रवेश करने का विधान बताया। गुरुकुल में आचार्य सभी का संस्कार कर सकता था। साथ में सभी को एक समान भोजन, वस्त्र आदि देना भी स्वामी जी हैं जोकि वैदिक साम्यवाद का सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं। स्वामी जी शूद्रों के उपनयन विरोधी नहीं हैं अपितु उस काल परिस्थिति में जो सबसे उत्तम उपाय शूद्रों के उत्थान के लिए था उसके हिमायती हैं।
डॉ विवेक आर्य
अच्छी जानकारी, डॉ साहब !