कैसे ……
इस तेज़ रफ्तार से चलते लोगों से
कदम से कदम मिलाऊं कैसे
चल रहे हैं सब अपने हमसफर के संग
मैं अकेली मंजिल को पाऊं कैसे
भुलभुलैया सी लगती है यह दुनियां
मैं अपनी राह बनाऊं कैसे
चली तो थी मैं इक कारवां के साथ
अब तन्हा वापस जाऊँ कैसे
हर इक शख्स लगता है बेगाना सा
किसी को हमराज बनाऊ कैसे
हस तो लेती हूं दुनियां के साथ पर
तन्हाई में आँखों की बरसात छुपाऊं कैसे
चल रहे हैं सब अपने हमसफर के संग
मैं अकेली मंजिल को पाऊं कैसे
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी …बेह्तरीन अभिव्यक्ति …!!शुभकामनायें.
अच्छी ग़ज़ल, प्रिया जी.