योजना आयोग की समाप्ति
श्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने विगत दिनों दो ऐतिहासिक निर्णय लिए | सरकार बनने के तुरंत बाद उन्होंने योजना आयोग को समाप्त करने का फैसला किया | उसी कड़ी में पिछले सप्ताह केन्द्रीय सरकार के सचिवालय में संयुक्त सचिव तथा अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारियों की संविदा नियुक्ति का निर्णय किया | निश्चित रूप से उक्त दोनों ही निर्णय महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक हैं | इनके परिणामस्वरुप राजनैतिक व प्रशासनिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन दृष्टिगोचर होगा |
यह सुविदित तथ्य है कि योजना आयोग एक संविधानेतर संस्था के रूप में अस्तित्व में आया था | उन दिनों समाजवादी शासनतंत्र में “पंचवर्षीय योजनाओं” की अनिवार्यता प्रचलित थी | भारत ने भी योजना आयोग बनाकर साम्यवादी राष्ट्रों को लुभाने तथा उनसे तकनीकी और आर्थिक सहायता व सहयोग प्राप्त करने की कोशिश की थी | यह कोशिश सफल भी रही थी | साथ ही इसके परिणामस्वरूप भारत में पब्लिक सेक्टर के नव रत्नों का जन्म हुआ | किन्तु इस प्रकार जन्मी “मिश्रित अर्थ व्यवस्था” के कारण भारतीय समाज एवं राज्य व्यवस्था में अनेकानेक बुराईयों ने भी जन्म लिया | उदाहरण के लिए सहकारिता आन्दोलन लालची नेताओं के भ्रष्ट इरादों तथा आचरण के कारण स्वार्थ साधन का माध्यम बन गया |
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात प्रारम्भिक पांच दशकों में भारत के राज्यों का असमान विकास, मुख्यतः योजना आयोग के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा बांटी गई रेवड़ियों के कारण हुआ | इसके अतिरिक्त योजना आयोग की कार्यप्रणाली में उत्तरदायित्व और जबाबदेही का नितांत अभाव रहा | इसके कर्ताधर्ताओं में प्रमुख रूप से भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारीगण तथा प्रधान मंत्री का विश्वास जीतने वाले राजनेता रहे हैं | राज्यों को दी जाने वाली सहायता का साठ सत्तर प्रतिशत भाग योजना आयोग के माध्यम से ही दिया जाता रहा है | परिणाम स्वरुप राज्यों के मुख्यमंत्रीगण एक याचक के समान योजना आयोग के उपाध्यक्ष व सदस्यों को सलाम करते रहे हैं |
भारत में बस कहने भर को संघीय शासन प्रणाली तथा संसदीय शासन व्यवस्था है | वास्तविक सत्ता तो योजना आयोग व सचिवालयों में विराजमान अखिल भारतीय सेवाओं के नौकरशाहों के हाथों में रही है | क्योंकि प्रारम्भ से ही नीति निर्धारण तथा डिसीजन मेकिंग का कार्य नौकर शाह ही करते आ रहे हैं | अधिकाँश राजनेताओं में शासन व्यवस्था की प्रक्रियाओं को समझने की न तो इच्छा रही और न ही व्यवहारिक अनुभव | राजनेताओं के हाथों में सत्ता का केवल उपभोग भर बचा | उनकी नजर केवल निजी स्वार्थपूर्ति पर रही | इसी संकुचित दृष्टिकोण के कारण आम जनता के व्यापक हितों की पूर्ति में अनेक बाधाएं आती रहीं |
उपरोक्त परिप्रेक्ष में श्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग को समाप्त करने का जो कदम उठाया है, उसके कारण बाबूराज की जड़ पर प्रहार होगा | साथ ही सच्चे संघीय शासन की दिशा में कदम बढ़ेंगे | अब राज्यों की योजनायें उनकी अपनी समझ तथा आवश्यकताओं के अनुसार बन सकेंगी | अखिल भारतीय समस्याओं का समाधान अखिल भारतीय हो सकता है | उसके लिए विशेषज्ञों द्वारा नीति बनाई जा सकती है | किन्तु जहां तक राज्यों का प्रश्न है, हर राज्य की परिस्थितियाँ तथा समस्याएं अलग अलग होती हैं | अतः उनके लिए केंद्र द्वारा खोजी गई कोई एक दवा रामवाण के समान कारगर सिद्ध नहीं हो सकती |
इक्कीसवीं सदी की अधिकाँश समस्याएं ‘तकनीकी’ से उपजी हैं और उनका निदान भी टेक्नोलोजी से ही संभव है | सचिवालय स्तर पर संयुक्त सचिव तथा अतिरिक्त सचिव के पद पर संविदा आधार पर नियुक्ति के निर्णय से तकनीकी रूप से दक्ष लोगों के ज्ञान से लाभ लेने हेतु केन्द्रीय सचिवालयों के द्वार अब खुल जायेंगे | बाबू राज पर लगाम कसी जा सकेगी | प्रचलित व्यवस्था में एक आईएएस अधिकारी औसतन 10-11 माह एक स्थान पर पदस्थ रहता है | फलस्वरूप वह “जैक ऑफ़ आल, मास्टर ऑफ़ नन” रहता है | सचिवालय व्यवस्था तो पूरी तरह लिपिकों, अंडर सेक्रेटरी, डिप्टी सेक्रेटरी व ज्वाईंट सेक्रेटरी के चंगुल में रहती है | चूंकि इन सेवाओं के लिए चयनित कर्मिकों का अन्यत्र स्थानान्तरण भी नहीं हो सकता अतः आईएएस संवर्ग के अधिकारी भी इनसे पंगा नहीं लेते |
अब प्रश्न उठता है कि जब समस्या इतनी जटिल है तो संविदा पर नियुक्त संयुक्त सचिव अथवा अतिरिक्त सचिव भला क्या कर लेगा ? अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता ? किन्तु वस्तुतः नई व्यवस्था में जो खूबी है उसके माध्यम से कुछ सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं | आईये इस प्रस्तावित व्यवस्था का विवेचन करने का प्रयत्न करें –
1 नीति निर्माण तथा उसके क्रियान्वयन में अब विशेषज्ञों की भूमिका रहेगी |
2 विशेषज्ञों की विशेषज्ञता का लाभ तब ही लिया जा सकता है जब परामर्शदात्री सेवाओं का युग शुरू हो | भारत में कई पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप में परामर्शदात्री सेवाएँ शुरू हुई हैं, यद्यपि उनकी योग्यता व अनुभव पर प्रश्नचिन्ह है |
3 अमेरिका और यूरोपीय राज्य व्यवस्थाओं में नौकरशाही की भूमिका सीमित है | वहां बूझ एलन हेमिल्टन, डिलोयट, पीडब्लूसी, मेकेंजी कंसल्टेंसी जैसी सेवाएँ हैं | भारत में भी यदि यही प्रयोग हो तो रोजगार के भी भरपूर अवसर निर्मित होंगे |
4 संविदा नियुक्ति से नौकरशाहों की संख्या में कमी आयेगी, राजकोषीय घाटा कम होगा, सरकार के वित्तीय संसाधनों का उपयोग विकास कार्यों में किया जा सकेगा | साथ साथ भारतीय राज्य व्यवस्था नौकरशाही के चंगुल से मुक्त होगी, जिसने उसे पंगु बनाया हुआ है |
5 सचिवालय व्यवस्था में उत्तरदायित्व तथा जबाबदेही सुनिश्चित की जा सकेगी | शासन की मंथर गति दूर होगी तथा अनुशासन आएगा |
6 शासकीय नौकरी के प्रति लोगों का मोह कम होगा | केवल नौकरी के लिए नवयुवक तीन वर्ष तक तैयारी करते हैं | भर्ती परीक्षाओं में लगने वाले दसों लाख लोगों के मानव श्रम की बचत होगी |
7 सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आम नागरिक अपेक्षित परिणाम न आने पर सरकार के स्थान पर उन एजेंसियों को कटघरे में खडा करेगी | वर्तमान में सरकार ने जन्म से मृत्यु तक सभी व्यवस्थाओं को अपने सर पर ले लिया है | सरकार पर्यवेक्षक, मार्गदर्शक नियंत्रक हो सकती है, किन्तु कर्ता नहीं | कर्ता की भूमिका तो तकनीकी रूप से दक्ष पेशेवर संस्थाओं तथा सामाजिक संस्थाओं को ही निर्वाह करनी चाहिए | इसी दिशा में उठाया गया यह पहला कदम लोकतंत्र को मजबूत व सशक्त करेगा |
अच्छा लेख. लालफीताशाही को कम करना देश के हित में ही है. यह मोदी जी का एक और अच्छा काम है.