कविता : दहेज़ – १
बहू आज ही ससुराल आयी
सास बोली
बहू तू पीहर से क्या क्या साथ लाई
बहू बोली-
मां जी मेरे पिताजी ने
अपनी जायदाद बेचकर मेरी शादी रचाई
इससे आगे उनकी हैसियत
कुछ देने की न आई
सास बोली-
तेरा बाप अगर तुझे बेचता
और जमीन जायदाद ही दे देता
तो हम न सही कलमुंही
तेरा पति ही खुशी से रह लेता
यही लोग जब धार्मिक अस्थान में जाते हैं तो आँखें मूँद कर ऐसे बैठे होते हैं जैसे भगवान् के चरणों में बैठे हों, जब मेरे जैसा कोई सवाल करता है तो सर फोड़ने को आते हैं . जब यह लोग दाज के लिए नीचता पर चले जाते हैं तो इन्हें भगवान् देखता ही नहीं .
बढ़िया ! दहेज़ की बुराई पर करारा प्रहार !