नास्तिकता बनाम् आस्तिकता
हमारे देश व समाज में कुछ बन्धु स्वयं को नास्तिक कहते हैं। उनसे पूछिये कि नास्तिक का क्या अर्थ होता है तो वह कहते हैं कि हम ईश्वर और जीवात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते। यदि उनसे पूछा जाये कि क्या आपने ईश्वर व जीवात्मा से सम्बन्धित उपलब्ध सभी साहित्य का अनुसंधानात्मक अध्ययन किया है तो हमें लगता है कि एक व्यक्ति भी इसका उत्तर हां में नहीं देगा। अपने आप को नास्तिक कहना भी एक प्रकार का फैशन हो गया है। जैसे हमने टीवी या चलचित्र में कुछ देखा, हमें अच्छा लगा और हमने उसे स्वीकार कर लिया। यह बात अलग है कि हमने जिसे स्वीकार किया वह हमारा निर्णय विवेक पूर्ण है या नहीं। वैज्ञानिक ईश्वर व जीवात्मा को नहीं मानते तो उसके पीछे के कारण और हैं और सामान्य लोगों के अन्य। वैज्ञानिक हर चीज को मानने से पूर्व उसे अपनी प्रयोगशाला में सिद्ध करते हैं। वह ईश्वर को प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं कर सके तो उन्होंने कहा कि ईश्वर नहीं है। दो बातें हैं, पहली तो यह कि वैज्ञानिकों ने विगत 40-50 वर्षों में जो नई खोजें की हैं वह इससे पूर्व अस्तित्व में नहीं आईं थीं। इसका मतलब यह है कि इससे पूर्व वह इन खोजों को भी नहीं मानते थे कि यह हो सकेंगी? उन्होंने प्रयास किया और वह सफल हो गये अतः एक असम्भव व कठिन लगने वाला कार्य सिद्ध हो गया। हम इसके लिए वैज्ञानिकों का साधुवाद ही करेंगे और साथ में यह कहेंगे कि जो वस्तु प्रयोगशाला में सिद्ध की ही नहीं जा सकती उसको प्रयोगशाला में सिद्ध करने का प्रयास करना और अससफल होना बेमानी व निरर्थक है। तो फिर ईश्वर का अस्तित्व कहां सिद्ध हो सकता है?
इसके लिए हमें विज्ञान का कारण-कार्य-कारण सिद्धान्त लेना होगा। विज्ञान के अनुसार हर कार्य का एक या अनेक कारण होते हैं जिससे वह कार्य अस्तित्व में आता है। दर्शन शास्त्र में कहा गया है कि एक मिट्टी का घड़ा, एक कुम्हार (कुम्भकार), मिट्टी और कुम्हार के चाक आदि उपकरणों से अस्तित्व में आता है। अन्य प्रकीर्ण कुछ और साधनों की सहायता भी कुम्भ या घड़ा बनाने में ली जाती है। इस उदाहरण में घड़ा कार्य है और कुम्हार, मिट्टी, कुम्हार के घड़ा बनाने के उपकरण यथा चाक आदि कारण कहलाते हैं। यह कारण मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं एक निमित्त कारण, दूसरा उपादान और तीसरा साधारण कारण। यहां निमित्त कारण कुम्हार है और मिट्टी उपादान कारण तथा उपकरण आदि साधारण कारण कहे जाते हैं। अब हम इस सृष्टि या ब्रह्माण्ड पर विचार करते हैं। यहां सृष्टि या ब्रह्माण्ड “कार्य” हैं। अब इनके सम्भावित व आवश्यक कारणों पर विचार करते हैं। सृष्टि के पदार्थों में पंच महाभूत यथा पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश का मुख्य अस्तित्व है। पृथिवी के जड़ पदार्थों यथा एक पत्थर का जब हम विभाजन व खण्डन करते हैं तो वह छोटे-छोटे टुकड़ों, फिर कणों और उसके बाद सूक्ष्म कणों में विभाजित होता जाता है। यह छोटे से छोटा कण या तो अणु समूह होता है या अणु। यह अणु विज्ञान के अनुसार कुछ परमाणुओं से मिलकर बना है। यह परमाणु भी इससे सूक्ष्म कणों व पदार्थ जिसे कारण प्रकृति कहा जाता है और जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, उससे बने हैं। इस सत्व, रज व तमो गुणवाली मूल प्रकृति को कोई बनाता नहीं है। यह शाश्वत, सनातन, नित्य, अनादि, अविनाशी है जो सदा व हमेशा से है। यह मूल प्रकृति ही इस सृष्टि का उपादान कारण है अर्थात् इसी से वर्तमान सृष्टि अस्तित्व में आई है। इसी मूल प्रकृति से अग्नि, वायु व जल भी अस्तित्व में आते हैं।
अब सृष्टि के उपादान कारण को जान लेने के बाद हमें इसके निमित्त कारण पर विचार करना है। घड़े को बनाने वाला जिस प्रकार से कुम्हार निमित्त कारण है उसी प्रकार से इस सृष्टि को मूल अनादि प्रकृति से बनाने वाला भी इस सृष्टि के अन्दर, जगत में, ब्रह्माण्ड में एक निमित्त कारण है। वह हमें दिखाई दे या न दे, समझ में आये या न आये, यह हमारे ज्ञान व बौद्धिक क्षमता पर निर्भर करता है, परन्तु वह है अवश्य। यदि न हो तो मूल प्रकृति से परमाणु, परमाणु से अणु, अणुओं से विभिन्न पदार्थ यथा पृथिवी, अग्नि, वायु, जल आदि कैसे अस्तित्व में आये इसका उत्तर न तो हमारे नास्तिक बन्धुओं के पास है और न ही हमारे वैज्ञानिक मित्रों के पास है। इसका उत्तर वेद, हमारे दर्शन और उपनिषदें प्रमाण पुरस्सर देती हैं। यह उत्तर पूरी तरह से वैज्ञानिक है, तर्क संगत है, युक्ति प्रधान, बुद्धि संगत है, इसका इसके विपरीत व अन्य और कोई उत्तर नहीं है। इसलिये इसी उत्तर को स्वीकार करना ही उचित है। अब बात केवल यही है कि इसको और किस प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है। इसका उत्तर भी हमारे पास है और वह है कि इसके लिए योग की शरण में जाना होगा। योगासन और योग में बहुत अन्तर है। आजकल योगासनों तथा प्राणायाम को ही योग मान लिया गया है। जबकि यह दोनों अंग योग का 2/8 भाग या हिस्सा है। योग के आठ अंग में से दो अंग आसन व प्राणायाम है और शेष छः अंग, यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि हैं। इन अंगों को जानने व समझने के लिए किसी ताम-झाम की आवश्यकता नहीं है। एक योग गुरू के सान्निध्य में जाकर इन्हें जाना जा सकता है।
योग दर्शन ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व व आत्मा द्वारा ईश्वर के साक्षात्कार करने-कराने के ज्ञान व विधि का एक वैज्ञानिक ग्रन्थ है। अष्टांग योग के अन्तर्गत यम से आरम्भ कर समाधि की अवस्था पर पहुंच कर ईश्वर का साक्षात्कार अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान व अनुभूति योग-साधक को होती है। जिन लोगों ने समाधि अवस्था प्राप्त की है उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि ईश्वर नहीं है या समाधि में भी उन्हें ईश्वर दिखाई नहीं दिया है। समाधि में ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान योगी को होता है। समाधि में योगी का आत्मा द्रष्टा बन कर ईश्वर की सत्ता को दृश्य की भांति प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है। मुण्डकोपनिषद के ऋषि बताते हैं कि इस अवस्था को प्राप्त होने पर योग द्रष्टा कहता है कि “भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।।“ अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहे परमात्मा में उस योगी का जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने समाधि को सिद्ध किया और उनके ईश्वर के स्वरूप का वर्णन करने वाले शब्द हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के द्वारा उपासना करने योग्य है। अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है।
योग व समाधि में ईश्वर के दर्शन व साक्षात्कार कहां व किस प्रकार से होता है इस विषय में भी स्वामी दयानन्द के शब्द उद्धृत हैं। वह कहते हैं कि ‘‘कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से (अर्थात् योग रीति से उपासना के द्वारा समाधि प्राप्त हाने पर) मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।’’
ईश्वर कोई भौतिक पदार्थ नहीं है जिसे कि वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा प्रयोगशाला में सिद्ध कर सके। यह सर्वातिसूक्ष्म, एकरस, निरवयव एवं विशुद्ध आध्यात्मिक चेतन तत्व है। इसको तो केवल अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर योग साधना द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अन्य कोई विधि, मार्ग व साधन आदि ईश्वर को प्राप्त करने का नहीं है। यही कारण है कि किसी भी मत में प्रयोग में लाई जाने वाली उपासना पद्धतियों से यह प्राप्त नहीं होता है। आज संसार की यदि 7 अरब जनसंख्या मान ली जाये तो हम समझते हैं कि योगियों के अतिरिक्त अन्य कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसे ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। ईश्वर का साक्षात्कार केवल योगी को ध्यान के द्वारा समाधि प्राप्त होने की अवस्था में ही होता है। जिसे साक्षात्कार करना है, उसे योगाभ्यास करना चाहिये। चूहे द्वारा बिल्ली के सामने आंखे बन्द करके यह कहने से यहां कोई बिल्ली दिखाई नहीं दे रही है, समस्या का हल नहीं है। वैज्ञानिकों ने इसलिए भी ईश्वर के अस्तित्व से इनकार किया कि वह सभी यूरोप में हुए हैं। यूरोप में ईसाई मत का प्रचार था। वहां ईश्वर को सातवें आसमान पर मनुष्यों की भांति आकार वाला निवासी बताया गया है। यह कथा वैज्ञानिकों की दृष्टि में अप्रमाणित है। वेद और वैदिक साहित्य की दृष्टि में भी इस विवरण की सत्यता अपुष्ट एवं अस्वीकार्य है। इस मत के किसी मतावलम्बी ने इस पर अनुसंधान कर इस आख्यान या मान्यता को सत्य व यथार्थ सिद्ध नहीं किया है जबकि वेद और योग के अनुयायियों में से अनेकों ने समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार किया है। योग दर्शन स्वयं ईश्वर के सत्यस्वरूप का वर्णन करता है और वह महर्षि दयानन्द के पूर्व उल्लिखित विचारों के अनुरूप है। अतः ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व सिद्ध है। विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, 11 उपनिषद्, 6 दर्शन, मनुस्मृति एवं चारों वेदों का अध्ययन करना उचित है।
एक आख्यान देकर हम इस लेख का उपसंहार करते हैं। एक परिवार में पिता नास्तिक थे और उनका पुत्र आस्तिक था। पिता को सीख देने के लिए पुत्र ने एक दिन पिता के कार्यालय जाने पर घर की बैठक की दीवार पर लगे अपने दादाजी का चित्र को उतार कर घर में कहीं रख दिया। शाम को पिता जी कार्यालय से घर आये तो बैठक में अपने पिताजी के चित्र को न देखकर पुत्र से पूछा कि वह चित्र कहां है? पुत्र ने कहा कि पिताजी, मुझे नहीं पता कि चित्र कहां गया। बार-बार पूछने पर उसने कहा कि कहीं चला गया होगा। इस पर पिता ने निश्चयात्मक रूप से कहा कि चित्र अपने आप कहीं नही जा सकता। वह जो जड़ है कोई चेतन पदार्थ नहीं है जिसे कुछ ज्ञान हो। इस पर समझदार व ज्ञानी पुत्र ने कहा कि पिताजी, जब यह सारा ब्रह्माण्ड अपने आप बिना किसी परमात्मा, ईश्वर व सृष्टिकर्ता के बन सकता है और व्यवस्थित रूप से सृष्टि-नियमों का पालन करते हुए चल सकता है तो क्या यह छोटा सा चित्र स्वमेव दीवार से उतर कर कहीं आसपास भी नहीं आ-जा सकता? इससे पिता की आंखे खुल गई और उन्होंने संसार की उत्पत्ति, इसका संचालन व प्रलय करने के लिए ईश्वर के अस्तित्व व उसकी महत्ता समझ में आ गई और उसने ईश्वर के अस्तित्व का होना स्वीकार कर लिया। एक अन्तिम बात कह कर लेख को विराम देते हैं। यदि ईश्वर नहीं भी है तो उसे मानने में किसी को कोई हानि नहीं होगी क्योंकि वह तो है ही नहीं, हानि कहां से पहुंचायेगा। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानेगें तो हमारी हानि होना स्वाभाविक व अपरिहार्य है। हम उससे प्राप्त होने वाली सुख-शान्ति व मृत्यु के बाद मिलने वाले जन्म में सुधार व उन्नति के प्रयासों से वंचित रह जायेगें जो कि एक बड़ा आत्मघाती कार्य होगा, इससे कुछ कम नहीं।
यदि किसी बन्धु को लेख पढ़ने के बाद भी ईश्वर के अस्तित्व में कोई शंका हो तो कृपया अपनी शंका का आधार अवगत कराने की कृपा करें।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन जी लेख अच्छा है लेकिन सवाल ऐसा है कि अगर मैं कहूँ कि भगवान् है या नहीं तो इस का किसी को किया नुक्सान या फाएदा हो सकता है ? अगर कोई रोज़ सुबह उठ कर पाठ पूजा करता है तो मुझे इस से किया , यह उस का पर्सनल विचार है .लेकिन मुझे तब दुःख होता है जब आए दिन ऐसी ख़बरें आती हैं कि एक महात्मा बुरे काम करते पकडे गए . अब सोचने की बात यह है एक शख्स जो पचीस तीस वर्ष से उस महात्मा को अपना इष्ट मानता चला आ रहा है तो उस पर किया बीतेगी ? उस के जिंदगी के पचीस तिस वर्ष तो बर्बाद हो गए .मैंने धार्मिक लोगों को बहुत नज़दीक से देखा है जो रोज़ रोज़ लोगों को भगवान् का नाम जप्वाते थे और जब वोह बुरे काम करते पकडे गए तो उनके जूते पड़ते भी मैंने देखे हैं . एक नहीं बहुत लोगों को मैंने देखा है . अगर भगवान् है तो लोग अछे इंसान कियों नहीं बनते? यों कहते हैं भगवान् हर जगह है , वोह सब कुछ देखता हैं वोह ज़र्रे ज़र्रे में है लेकिन जब बुरे काम करते हैं तो भगवान् देखता ही नहीं . नास्तिक होने का मतलब यह नहीं कि वोह बुरा इंसान है . अगर वोह आस्तक से अछे काम करता है तो वोह नास्तिक ही भला .
ईश्वर को मानने से मुझे अवश्य फायदा हो सकता है और ईश्वर को न मानने से हानि होना स्वाभाविक है। उदाहरण बिल्ली व चूहे का ले सकते हैं। चूहा यदि यह मानता है कि बिल्ली नहीं है तो उसको नुकसान अवश्य होगा, बिल्ली उसको खा जायेगी, और यदि यह मानकर कि बिल्ली से मुझे बचना है, पुरूषार्थ करे तो बचने की सम्भावना होती है। ईश्वर के बारे में ऐसा है कि जब हम ईश्वर को मानते हैं तो इसके प्रति कृतज्ञ होते हैं। कृतज्ञता एक बहुत बड़ा गुण है और कृतघ्नता बहुत बड़ा पाप। क्षमा करें, ईश्वर को न मानना कृतघ्नता के दायरे में आता है। जो व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसे वैसे ही फल मिलते हैं। किसी को अपना गुरू बनाने से पहले उसकी जांच पड़ताल करनी चाहिये कि उससे मेरा प्रयोजन पूरा होगा या नहीं। क्या उससे पहले किसी का किन्हीं का प्रयोजन पूरा हुआ है? यह जो गुरू बुरे काम करते हुए पकड़े जाते हैं और बहुत से बचे भी रहते हैं, ऐसे गुरूओं को परमात्मा जन्म जन्मांतर में अवश्य दण्ड देगा। वह सर्वव्यापक होने से हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है। गीता का यह सिद्धान्त सर्वांश में सही है कि “अवश्मेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्”। इसका अर्थ है कि जीवन में जो जैसे कर्म करेगा उसे उसके अनुसार फल को हर हाल में भोगना ही पड़ेगा। हमें गुरूओं के चक्कर में न फंसकर प्राचीन वेद, दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थों को उनके हिन्दी व अंग्रेजी भाष्य या अनुवाद सहित पढ़ना चाहिये। विद्वानों व ज्ञानियों से इसकी चर्चा करनी चाहिये। इससे बहुत अधिक लाभ होगा।
आजकल शरीर धारियों को गुरू बनाने से अच्छा है कि हम इन सत्य ग्रन्थों को अपना गुरू बनायें। इसमें कोई खतरा नहीं है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए और अपनी आत्मा की उन्नति के लिए हमें सच्चे ईश्वर की, जो केवल एक है, योग दर्शन की विधि, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि के द्वारा साधना व उपासना करनी चाहिये। इससे हमारा यह जन्म व मृत्यु के बाद का जन्म भी सुधरेगा। वेद और गीता के अनुसार जीव कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है। कर्म करने की स्वतन्त्रता होने के कारण ही ईश्वर जीवात्मा या पाखण्डी धर्म गुरूओं व अन्यों को पाप करने से रोकता नहीं है परन्तु समय पर फल अवश्य देता है। इसमें शंका नहीं करनी चाहिये। नास्तिक व्यक्ति आस्तिक कहलाने वाले व्यक्ति से अच्छा हो सकता है। वह आस्तिक कहलाने वाला व्यक्ति वस्तुतः अच्छा होता नहीं है, वह तो स्वयं को प्रदर्शित करता है जिसका वास्तविक रूप आम लोगों से छुपा रहता है। नास्तिक व्यक्ति अच्छा हो सकता है, इसमें दो राय नहीं। अच्छा होना पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त स्वयं को जानना व ईश्वर को जानना और ईश्वर की सहायता से, जैसे मित्रों व सच्चे गुरूओं की सहायता से करते हैं, अपने जीवन को सफल करना हमारा कर्तव्य व धर्म है। यह मेरे निजी विचार हैं जिनका आधार वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता आदि ग्रन्थ हैं और साथ ही मेरा चिन्तन व विवेक है।
एक अति श्रेष्ठ लेख के लिए हार्दिक साधुवाद ! आपके लेख का अंतिम (बोल्ड किया हुआ) वाक्य बहुत महत्वपूर्ण है. कई विचारकों ने ऐसा कहा है कि अगर इश्वर का अस्तित्व नहीं भी हो, तो हमें उसकी कल्पना कर लेनी चाहिए, क्योंकि इससे हमें अनेक मानसिक और सामाजिक लाभ होते हैं.
हार्दिक धन्यवाद, श्री सिंघल साहिब।