अधूरी ख्वाहिशेँ
पिता की झुर्रियों पर
जमी है
बर्षोँ की अधूरी ख्वाहिशेँ
परत दर परत
उधेड़ना चाहता है मन
बची खुची जिन्दगी मेँ . . .
सूनी आँखोँ मेँ
अभी भी बाकी हैं
सुनहरे सपने
आने वाले दिनों के
मोटे फ्रेम के चश्मे से
झांकता है
वह सुनहरा कल . . .
कसक
कुछ न कर पाने का
अपनी छूटती जड़ोँ मेँ
वह रोपना चाहता है
हसरतोँ के बीज
अपनी अगली पीढ़ी के लिए . . .
— सीमा संगसार
ठीक कहा आप ने .
बहुत सुन्दर ….
बहुत अच्छी कविता.