कविता

बाल दिवस

ठिठुरते गुलाबी जाडे मेँ
नन्हे हथेलियोँ से
धोते हुए
झूठे चाय के गिलास मेँ
वह ढूँढ़ता है
गर्म चाय की ऊष्मा
काश
थोड़ी गर्माहट मिल जाती
इस कंपकंपाते हाथोँ को
बूढ़ा मालिक जब चिल्लाता है
उस पर
‘तेज तेज हाथ चला’
वह  देख रहा होता है
टी वी पर
बाल दिवस का मनाया जाना . . .

— सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

3 thoughts on “बाल दिवस

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बाल दिवस , बकवास है . छोटे छोटे बच्चों को होटलों में जूठे बर्तन साफ़ करने का कोई शौक नहीं है , उनके माँ बाप की मजबूरी है . जब तक गरीबों की आर्थिक हालत में सुधार नहीं आता और यह बच्चे सकूल नहीं जाते तब तक यह बाल दिवस एक जोक है .

  • जवाहर लाल सिंह

    बहुत ही करारा व्यंग्य सत्यता के साथ!

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत करारी व्यंग्य कविता. बाल दिवस मनाना हमारे लिए केवल दिखावा और पाखंड है. जब तक सभी बच्चे विद्यालय नहीं जाते, तब तक यह दिवस मनाना व्यर्थ है.

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