हम से ही है स्रष्टि सारी
हमने ही बनाई यह सृष्टि
हम ही है पिछड़े
हमने ही सिखाया चलना
हमे ही अब सिखा रहें
हम मौन है तो
समझो नहीं कमजोर
रह पाओगें क्या हम बिन
सोचो दें दिमाक पर जरा जोर
जीवन होगा छिन्न-भिन्न
मन भी अक्सर रहेगा खिन्न|
माँ-बहन-पत्नी
सब रूप है मेरे
तुम खुद से चल पाओ
ऐसे कर्म नहीं तेरे
हमसे ही है तेज तुम्हारा
हमसे ही गरिमा बनी
सिखा-सिखा हारी तुमको
कमजोर नहीं हैं नारी
हम से ही हैं सृष्टि सारी
पड़ते हैं हम सब पर भारी|
सब सुखद हैं सपन सा सुहाना
फिर भी सब कुछ ही हैं अपना
विसंगतियों के साथ हमको
अब यूँ नहीं जीवन यापन करना|| …सविता मिश्रा
अच्छी कविता, बहिन जी.