कसक
एक आस दबा के
रखती हैँ वो
अधूरी ख्वाहिशेँ
जीने की लालसा को
ढँक लेती हैँ
घूंघट के नीचे . . .
आह भरती ये औरतेँ
इनकी अपनी कोई
जुबान नहीँ होती हैँ
वही कहती हैँ
जो बोला जाता है
भीँच कर रखती हैँ
अपने दर्द को
होठोँ के नीचे
दांतोँ तले . . .
फैसला लेती नहीँ कभी
खुद का
जीती हैँ हमेशा
दूसरोँ के भरोसे
इसलिए तो टूटती हैँ
कांच के मर्तबान की तरह
बार बार
जीने की तमन्ना लिए
झोँकी जाती हैँ
टूटे अरमानोँ तले . . .
— सीमा संगसार
बहुत अच्छी कविता !
सराहनीय एवं प्रसंशनीय।