कविता

कसक

एक आस दबा के
रखती हैँ वो
अधूरी ख्वाहिशेँ
जीने की लालसा को
ढँक लेती हैँ
घूंघट के नीचे . . .

आह भरती ये औरतेँ
इनकी अपनी कोई
जुबान नहीँ होती हैँ
वही कहती हैँ
जो बोला जाता है
भीँच कर रखती हैँ
अपने दर्द को
होठोँ के नीचे
दांतोँ तले . . .

फैसला लेती नहीँ कभी
खुद का
जीती हैँ हमेशा
दूसरोँ के भरोसे
इसलिए तो टूटती हैँ
कांच के मर्तबान की तरह
बार बार
जीने की तमन्ना लिए
झोँकी जाती हैँ
टूटे अरमानोँ तले . . .

— सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

2 thoughts on “कसक

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता !

  • Man Mohan Kumar Arya

    सराहनीय एवं प्रसंशनीय।

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