सरकारी स्कूल के बच्चे
फटी जेबोँ मेँ
संभाल कर रखी
कुछ रेजगारियोँ की
खनक
आश्वस्त करता है
इन्हेँ
अपनी छोटी छोटी
ख्वाहिशेँ पूरी होने की!!!
चंद सिक्कोँ मेँ ही
ये खरीद लेना चाहते हैँ
अपने सारे सपने . . .
छलांगे लगाते
इनका बचपन
हिलोरे मारता हुआ
तेजी से बढ़ता है
आभावोँ को पैबंद मेँ छिपाते हुए
बहुत जल्दी सयाने हो जाते हैँ
सरकारी स्कूल के बच्चे . . .
— सीमा संगसार
बढ़िया कविता. आपकी बात में दम है.