कविता : रेत के पन्नों पर
रेत के पन्नों पर मैंने
उनको अपना पैगाम लिखा
कलम मैं प्रीत की स्याही भर
अपने दिल का हाल लिखा
तुम बिन दिन मुशकिल से
कटते
रातें अब शूल सी चुभती है
चाँद देख जल उठता है मन
चाँदनी सौतन लगती है
विरह की आग मैं जलता
तन-मन
कि अब ये दूरी न सही जाती है
अशको से लिख नाम तुम्हारा
हवाओं से निवेदन करते है
उड़ाकर मेरी चाहत का पैगाम
तुम्हारे आँगन मैं बिखराये
मेरी तड़प का कुछ एहसास
तुम्हारे दिल तक भी पहुँचाये
प्रेम कोई खेल नहीं हमदम
प्रेम एक साधना होती है
दो दिलों की आहुती चढ़ती
तब ये साधना पूरी होती है
तुमने हमको दर्द दिया है
उपचार भी अब तुम ही करना
हमारे दिल के ज़ख्मों पर अब
अपने प्यार का मरहम रखना
“आशा” की धड़कन मैं तुम हो
प्यार भी तुमसे करते हैं
मेरी हर साँस भी देखो कि
नाम तुम्हारा ही जपती है
…राधा श्रोत्रिय”आशा”
वाह वाह ! बहुत खूब !!
कविता बहुत अच्छी लगी . रेत के पन्नों की जगह कागज़ के पन्नों पर होती तो माने बदल जाते किओंकि रेत पर लिखे शब्द हवा के एक झैंके से बिखर सकते है .