“दहेज एक दानव”
दहेज एक ऐसा दानव,
तड़प रहा है हर मानव,
दहेज बिना अधूरी शादी,
हुई कितनों की बरबादी,
गरीब बेचारा पिस रहा है,
घड़ी-घड़ी वो लुट रहा है,
दहेज की खातिर कर्ज लिया,
अपने सिर पर इक दर्द लिया,
दहेज का तांडव जारी है,
पिस रही हर एक नारी है,
सबने बेटी को प्रेम से पाला,
दहेज लोभियों की बनी निवाला,
क्या –क्या थे सपने उसके,
पर मार दिये अपने उसके,
जिनके लिए अपना घर छोड़ा,
उन सब ने ही उसका दम तोड़ा,
हे प्रभु ये कैसी नादानी है,
सुनकर होती हैरानी है,
हर घर में होती एक औरत है,
फिर फैली क्यों ये हिकारत है,
फिर औरत की क्यों दुश्मन है औरत ,
ऐसी भी क्या दहेज की है हसरत,
वो सब लोग क्यों ये भूला दिये,
जिनको रब ने बेटियों के सौगात दिये,
दिनेश”कुशभुवनपुरी”
बहुत अच्छी कविता. दहेज़ वास्तव में एक दानव है.