पराजय
ढलती हुई धूप और आती हुई रात के मध्य ,सुहानी सी मनभाती हुई शाम , अपने-अपने घरौंदो में लौटते हुए पंछी, टिमटिमाने को आतुर तारे, चाँद अपनी चाँदनी बिखेरने को बेचैन, और मैं गरम चाय की प्याली अपने हाथ में लिये हुए इन सब को महसूस करती हुई अपनी बाल्कनी में बैठी थी कि इतने में अचानक फोन की घंटी बजी, उठाकर जैसे ही “हेल्लो” कहा दूसरी तरफ से माँ की भर्राई हुई आवाज सुनायी दी
“हेल्लो, निधी एक बुरी खबर है, नानी नहीं रहीं ” और साथ ही सुनायी दी माँ की हिचकीयां ।
“क्या !! ” मेरे हाथ से चाय का प्याला गिरते-गिरते बचा “कब हुआ यह ?”
“आज सुबह ही, और अब तो उनका अंतिम संस्कार भी हो गया”
“क्या? पर माँ नानी जी तो लखनऊ गयी हुई थी ना ! क्या मामाजी इतनी जल्दी वहां पहुंच गये? जो अंतिम संस्कार भी हो गया? ” मेरे मन में अनगिनत सवाल आने लगे थे ।
“नहीं बेटा, नानी के भाई ने ही उनका अंतिम संस्कार किया.”
आँखें तो आँसूओं से भीगी थी पर मन में कहीं न कहीं इक सुकून सा हुआ यह जानकर ।
कमला नानी , रिश्ते में तो वो माँ की मौसेरी बहन थी पर माँ का उनसे सगी बहनों की तरह रिश्ता था , वो माँ से उम्र में काफी बडी थी तो हम सब भाई-बहन उन्हें नानी कहते थे, वह भी उतना ही प्यार देती थी ।
नानी को शादी के कई साल तक कोई बच्चा न हुआ, और फिर जब गांठें होने की वजह से उनकी बच्चेदानी ही निकाल दी गयी, तब बच्चा होने की रही सही उम्मीद भी खत्म हो गयी थी, तब उन्होंने बच्चे को गोद लेने का निर्णय लिया, नाना जी तो मना करते “क्या जरूरत है बच्चे की कमला, हम दोनों हैं न, एक-दूसरे की उम्र भर देखभाल करेंगे ” पर नानी नहीं मानती उनका तर्क होता “नहीं जी जब हम दोनों बूढ़े होंगे, तब कोई तो होना चाहिये हमें संभालने वाला, और फिर जब मरेंगे, तब हमारा बेटा ही हमें मुखाग्नि देगा ना ” नाना इन तर्कों के आगे निरउत्तर हो जाते ।
नाना पेशे से वकील थे और काफी पैसेवाले भी, तो बेटा गोद लेने में कोई दिक्कत नहीं आयी उन्हें किसी रिश्तेदार ने ही अपना बेटा दिया था ।
नानी तो बेटा पाकर इतनी खुश थी मानो सारे जहान की खुशीयां उनके आँचल में समा गयी हों, उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे भगवान जिस सुख से उन्हें वंचित रखना चाहते थे, उन्होंने उस फैसले के विरुद्ध जाकर उस सुख पर विजय पा ली हो, इसलिये उन्होंने बेटे का नाम भी विजय रख लिया ।
बहुत लाड़ प्यार से पालती थी वो विजय मामा को, ऐसी कोई चीज न थी जिसकी कमी कभी महसूस कराई हो उन्होंने, पर कहते हैं ना कि हद से ज्यादा प्यार भी बच्चों को बिगाड़ देता है, उसी तरह मामा भी बहुत जिद्दी हो गये थे पर उनकी हर गलती पर नानी “बच्चा है समझ जायेगा” कह कर टाल जाती। जब जवानी की दहलीज़ पर कदम रखा तब उन्हें अपने ही दोस्त की बहन रोमा पसंद आ गयी थी, नानी ने तो शुरू से ही जैसे उनकी हर जिद्द को पूरा करना अपना फर्ज़ समझा था, इसलिये वह रोमा को अपने घर की बहू बना लायी। नानी की तो खुशीयों का अब कोई ठिकाना न था, वह रोमा मामी को अपनी बेटी की तरह रखने लगी ।
शादी के कुछ सालों बाद जब नाना जी को लकवा मार गया तब मामी ने बजाय नानाजी की देखभाल करने में मदद करने के उल्टा नानी से वो झगड़ा करने लगी थी कि नानाजी की वजह से घर में बदबू फैलती है क्योंकि वह पूरी तरह से बिस्तर पर आ चुके थे। आखिर एक दिन मामाजी ने मामी की बातों में आ कर नानी को अलग छोटा सा घर दिला दिया, पर नानी , उनको तो जैसे बेटे के प्यार में सब मंजूर था बस बेटे को कोई तकलीफ न हो खुद चाहे जितनी परेशानीयों का सामना करना पडे।
दो सालों बाद नानाजी ने दुनियां से विदा ली, तब नानी अकेली रह गयी , रिश्तेदारों के तानों और दुनियादारी को देखते हुए मामाजी नानी को अपने घर ले गये , पर अब वक्त बहुत बदल चुका था, मामाजी पूरी तरह से सिर्फ़ मामी के पति थे, नानी के बेटे नहीं ।
एक दिन माँ और मैं अचानक नानी से मिलने पहुंच गये, मगर यह देखकर हैरानी हुई कि नानी को एकदम कोने वाला स्टोर रूम दिया गया है, जहां से घर में कौन कब आये जाये उन्हें पता भी न चले। नानी हमें देखकर बहुत खुश हुई “बहुत अच्छा किया जो तुम लोग आ गये बहुत मन था किसी से बातें करूं ” पर कुछ देर बाद वो उदास हो कर कहने लगी “देखो न मेरी मजबूरी मेरे घुटनों में दर्द है उठ नहीं सकती और रोमा घर पर नहीं कि तुम्हें चाय भी पिला सके ।”
“नानी, हम चाय पीने नहीं आपसे बातें करने आये हैं, आपसे मिलने आये हैं ” मैंने नानी को बीच में ही टोका । पर वह यह नहीं जानती थी कि हमारे लिये दरवाजा रोमा मामी ने ही खोला था, मगर हम लोग चुप रहे, यह बताकर नानी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। मामी भले ही नानी की बेटी न बन पायी पर नानी सदा माँ बन उनकी गलतीयों को छुपाती रहीं। हमें मामी का चाय न पूछना नहीं अखरा, मगर जाते समय जो नानी ने कहा उसे सुनकर हम दोनों अवाक हो गये थे । जब हम वापस घर जाने के लिये उठे तब नानी ने कहा ” कहना तो नहीं चाहती थी, पर क्या तुम लोगों को एक तकलीफ दे सकती हूं ? ”
“कैसी तकलीफ नानी ? इतनी औपचारिकता क्यूं कर रहीं हैं आप ?”
“नहीं बेटा , वो क्या है न विजय रात को देर से घर लौटता है तो रोमा को भी सोने में देर हो जाती है , तो रोमा सुबह देर से उठती है ” नानी अटक-अटक कर कह रहीं थी, मानो जैसे कहना नहीं चाहती पर कोई मजबूरी कहलवा रही हो उनसे ,
“और ये लोग नाश्ता नहीं करते सीधे खाना खाते हैं, और मुझे बुडापे में कहां इतनी नींद आती है, ऊपर से मरी ये शुगर की बीमारी, मैं जल्दी उठ जाती हूं तो भूख सहन नहीं होती खाना बनने तक , इसलिये अगर तुम बाहर से कुछ बिस्कुट के पैकेट यां केक ला दो तो सुबह वो खाकर मैं अपनी दवाइयां ले सकूं।”
“हां नानी क्यूं नहीं , मैं अभी ले आती हूं ” कहकर मैंने माँ को वहीं बैठने का इशारा किया और जाने लगी ।
नानी ने रोक लिया “अभी नहीं , जब तुम लोग जाओगे ना तब बाहर से लाकर यहां खिड़की से दे जाना ”
हम लोग समझ चुके थे कि नानी मामी से डर की वजह से ऐसा कह रही हैं । खैर हम उस समय तो दे आए पर मन कचोटने लगा कि यह सब आखिर कब तक चलेगा ? हमने घर आ कर पापा से बात की कि वह मामा को समझायें ।
अगले ही दिन पापा ने मामा को फोन किया और उन्हें समझाया, उस समय तो वह कुछ नहीं बोले मगर कुछ दिनों बाद नानी का फोन आया कि वह लखनऊ चली गयी हैं, मम्मी ने पूछा “इस तरह अचानक कैसे जाना हुआ दीदी , आपने तो कुछ बताया ही नहीं !”
नानी की आवाज धीरे -धीरे सिसकीयों में बदल गयी ” अब वहां रहना मुश्किल हो गया था साधना , तुम लोग उस दिन गये उसके कुछ दिनों बाद न जाने रोमा को क्या हुआ उसने मेरा कमरे का सारा सामान वाचमैन को दे दिया बस एक कुर्सी रहने दी कमरे में और तो और तुम्हारे जीजाजी की तस्वीर को भी उठाकर सड़क पर फेंक दिया” नानी की सिसकीयां तेज होती गयीं और माँ की आँखों से भी अविरल अश्कों की धारा बह चली ।
खुद को ज़रा संभालते हुए नानी ने कहा “मैं ही पगली थी जो भगवान की मर्जी के विरुद्ध जाकर अपने लिये खुशी ढूंढ़ने चली थी, समझी थी कि विजय पा ली है पर यह कहां जानती थी कि उस विजय के पीछे मेरी ही पराजय थी ।”
उस के घटना के बाद नानी कुछ महीने ही जी पायी, दुख तो हुआ नानी की मृत्यु का समाचार सुनकर, मगर यह जानकार संतोष भी हुआ कि नानी ने ही मामा से उनको मुखाग्नि देने का अधिकार छीन लिया था। और तब हम सबने मामा से सारे संबंध तोड़ लिये ।
बहुत मार्मिक कहानी ! लोग अपनी पत्नी के गुलाम बनकर माँ बाप को भी कष्ट देने लगते हैं. धिक्कार !