कवितासामाजिक

पापा  (कविता )

 

पापा  (कविता )

 

जब  बहुत छोटा था मै

देश और दुनिआ से अनजान था मै

इतना मासूम और नादान था मै

ऐसे में

उंगली पकड़ पकड़ दौड़ाते थे पापा

मेरे पापा

 

कंधे पर बिठाते थे

गोल गोल घुमाते थे

बाग़ और बगीचो की बात क्या थी

पापा

बाहों का झूला बनाते थे

जगह की कमी में

स्वयं बिछोना बन जाते थे

माँ जब डांटती

पापा प्यार जताते थे

ठंड से ठिठुरता था

सीने से चिपका गर्माते थे

बारिश से भीगता था मै

छाता  बन जाते थे

ऐसे थे पापा

मेरे पापा

 

Rओ पड़े थे एक din

मेरे पापा

क्युकी बड़ा हो चला था मै

भला और बुरा

जानने लगा था मै

शायद इतना अधिक

की भले को भी बुरा

और

बुरे  को भला बताने लगा था मै

और ना जाने क्यों

पापकी सादगी से

शर्माने लगा था मै

फिर भी

शिकायत नही करते थे

मेरे पापा

 

और आज

मै भी पापा बन गया

पर ना बन पाया

अपने बच्चों का बिछोना

झूला नही पाटा

बाहों के झूले

लाज आने लगी है

बीचा सड़क पे

कंधे  पर बिठाने में

ठंड लगे तो

सीने से गरमाने में

भीगने लगे तो

छटा बन जाने में

 

आज मुझे प्रतीत होता है

कुछ अधिक हे बड़ा हो गया हु मै

संभवतया इतना

की

बड़े होने की परिभाषा कुछ

बदल सी  गयी है

 

और इसी कारणवश

शायद नही पा रहे

मेरे बच्चे

वो पापा

जो कभी होते थे

मेरे पापा

हाँ

मेरे पापा

 

(महेश कुमार माटा )

 

महेश कुमार माटा

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