स्वामी दयानंद का इतिहास चिंतन
7 दिसंबर, हिंदुस्तान टाइम्स, दिल्ली संस्करण में RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) द्वारा इतिहास के पाठ्यकर्म में परिवर्तन को लेकर लेख छपा हैं। पाठक इस तथ्य से भली भांति परिचित हैं कि सरकार के इस कदम का वामपंथी विचारधारा से सम्बंधित लोग अलग अलग तर्क देकर विरोध कर रहे हैं। संघ का यह कदम स्वागतयोग्य हैं। हालांकि पाठकों को यह अवगत करवाना आवश्यक हैं कि इतिहास विषय में भ्रांतियों को सर्वप्रथम उजागर करने का श्रेय स्वामी दयानंद को जाता हैं। क्रांतिगुरु स्वामी दयानंद के विशाल चिंतन में एक महत्वपूर्ण कड़ी इतिहास रुपी मिथ्या बातों का खंडन एवं सत्य इतिहास का शंखनाद हैं। स्वामी जी का भागीरथ प्रयास था कि विदेशी इतिहासकारों द्वारा अपने स्वार्थ हित एवं ईसाइयत के पोषण के लिए विकृत इतिहास द्वारा भारत वासियों को असभ्य, जंगली, अंधविश्वासी आदि सिद्ध करने के लिए किया जा रहा था उसे न केवल सप्रमाण असत्य सिद्ध करे अपितु उसके स्थान पर सत्य इतिहास कि स्थापना कर भारत वासियों को संसार कि श्रेष्ठतम, वैज्ञानिक, अध्यात्मिक रूप से सबसे उन्नत एवं प्रगतिशील सिद्ध करे। इसी कड़ी में स्वामी जी द्वारा अनेक तथ्य अपनी लेखनी द्वारा प्रस्तुत किये गये जिन पर आधुनिक रूप से शौध कर उन्हें संसार के समक्ष सिद्ध कर अनुसन्धान कर्ताओं कि सोच को बदलने कि कि अत्यंत आवश्यकता हैं।
स्वामी जी द्वारा स्थापित कुछ इतिहास अन्वेषण तथ्यों को यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. आर्य लोग बाहर से आये हुए आक्रमणकारी नहीं थे, जिन्होंने यहाँ पर आकर यहाँ के मूल निवासियों पर जय पाकर उन पर राज्य किया था। वे यही के मूल निवासी थे और इस देश का नाम आर्यव्रत था।
२. वेदों में आर्य दस्यु युद्ध का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं और यह नितांत कल्पना हैं क्यूंकि वेद इतिहास पुस्तक नहीं हैं।
३. प्राचीन काल में नारी जाति अशिक्षित एवं घर में चूल्हे चौके तक सिमित न रहने वाली होकर गार्गी, मैत्रयी जैसी महान विदुषी एवं शास्त्रार्थ करने वाली थी। वेदों में तो मंत्र द्रष्टा ऋषिकाओं का भी उल्लेख मिलता हैं।
४. वेदों में एक ईश्वर कि पूजा और अर्चना का विधान हैं। एक ईश्वर के अनेक गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते हैं और यह सभी नाम गुणवाचक हैं मगर इसका अर्थ यह हैं कि ईश्वर एक हैं और अनेक गुणों द्वारा जाना जाता हैं।
५. वेदों का उत्पत्ति काल २०००-३००० वर्ष नहीं हैं अपितु सूर्य सिद्धांत शिरोमणि आदि ग्रंथों के आधार पर अरबों वर्ष पुराना हैं।
६. रामायण, महाभारत आदि काल्पनिक ग्रन्थ नहीं हैं अपितु राजा परीक्षित के पश्चात आर्य राजाओं कि प्राप्त वंशावली से सिद्ध होता हैं कि वह सत्य इतिहास हैं।
७. श्री कृष्ण का जो चरित्र महाभारत में वर्णित हैं वह आपत अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों वाला हैं। अन्य सब गाथायें मनगढ़त एवं असत्य हैं।
८. पुराणों के रचियता व्यास जी नहीं हैं अपितु पंडितों ने अपनी अपनी बातें इसमें मिला दी थी और व्यास जी का नाम रख दिया था।
९. रामायण, महाभारत, मनु स्मृति आदि में जो कुछ वेदानुकूल हैं वह मान्य हैं प्रक्षिप्त अर्थात मिलावटी हैं।
१०. वैदिक ऋषि मन्त्रों के रचियता नहीं अपितु मंत्र द्रष्टा थे। वेद अपौरुषेय हैं अर्थात मनुष्य की नहीं अपितु मानव जाति की रचना हैं।
११. वेदों में यज्ञों में पशु बलि एवं माँसाहार आदि का कोई विधान नहीं हैं। वेदों कि इस प्रकार कि व्याख्या मध्य कालीन पंडितों का कार्य हैं जो वाममार्ग से प्रभावित थे।
१२. मूर्ति पूजा कि उत्पत्ति जैन मत द्वारा आरम्भ हुई थी। न वेदों में और न ही इससे पूर्व काल में मूर्ति पूजा का कोई प्रचलन था।
१३. वेदों में जादू टोना,काला जादू आदि का कोई विधान नहीं हैं। यह सब मनघड़त कल्पनाएँ हैं। मध्य काल में वाममार्ग आदि का प्रचलन हुआ जो पुरुषार्थ के स्थान पर मिथ्या विधानों में विश्वास रखता था। तांत्रिक कर्मकांड उसी विचारधारा की देन हैं।
१४. वेदों में अश्लीलता आदि का कोई वर्णन नहीं हैं। यह सब मनघड़त कल्पनाएँ हैं। वाममार्ग द्वारा व्यभिचार की पुष्टि के लिए वेद मन्त्रों अर्थ किये गए जिससे यह प्रतीत होता हैं कि वेदों में अश्लीलता हैं।
१५. सृष्टि कि उत्पत्ति के काल में बहुत सारे युवा पुरुष और नारी का त्रिविष्टप पर अमैथुनी प्रक्रिया से जन्म हुआ था और चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को ह्रदय में ईश्वर द्वारा वेदों का ज्ञान प्राप्त करवाया गया था। पश्चात उन्हीं युवा पुरुष और नारी से मैथुनी सृष्टि की रचना हुई एवं वेदों के ज्ञान का प्रचार प्रसार हुआ।
१६. वेदों का ज्ञान बहुत काल तक श्रवण परम्परा द्वारा सुरक्षित रहा कालांतर में इक्ष्वाकु के काल में वेदों को सर्वप्रथम लिखित रूप में उपलब्ध करवाया गया था। देवनागरी लिपि को अक्षर रूप में बोलना हमें सृष्टि के आदि काल से ज्ञात था जबकि उसे लिपि के रूप में राजा इक्ष्वाकु के काल में विकसित किया गया।
१७. आर्य वैदिक सभ्यता प्राचीन काल में सम्पूर्ण विश्व में प्रचलित थी और आर्यव्रत देश संसार का विश्व गुरु था।
१८. प्राचीन काल में विदेश गमन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था और न ही विदेश जाने से कोई भी धर्म से च्युत हो जाता था।
१९. शुद्धि आदि का विधान गोभिल आदि ग्रंथों में विद्यमान था इसलिए जो भी कोई वैदिक धर्म त्याग कर विधर्मी हो चुके हैं उन्हें वापिस स्वधर्मी बनाया जा सकता हैं।
२०. गुजरात के सोमनाथ में मुसलमानों कि विजय का कारण मूर्ति पूजा एवं अवतारवाद से सम्बंधित पाखंड था नाकि हिंदुओं में वीरता कि कमी थी।
ऐसे और उदहारण देकर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती हैं जिसका उद्देश्य स्वामी दयानंद को अपने समय का सबसे बड़े इतिहासकार, अनुसन्धान कर्ता के रूप में सिद्ध करना होगा। संघ द्वारा इतिहास विषय में चेतना उत्पन्न करने का श्रेय स्वामी दयानंद को अवश्य देना चाहिए।
डॉ विवेक आर्य