कविता

जीवन की डोर

 

पुरवैया हवाओँ के
संग संग लहराए
मेरे सपने और मेरा अतीत
अपनी लाल चुनरिया
को मैँने थाम लिया है
अपने आगोश मेँ
वैसे ही जैसे
सपनोँ को जीती हूँ
अपने अन्तःकोष मेँ . . .

jeevan

करती हुँ इन्तजार
मकर संक्रान्ति का
जिस दिन खूब उड़ाउँगी
अपने पनीले सपनोँ को
पतंग की तरह
जिसे मिलेगा पूरा आकाश
उड़ान भरने को . . .

मेरा अतीत भी
बंद चिड़ीयोँ की तरह
कैद है पिँजड़े मेँ
उसे दे दुँगी आजादी
अभी इसी वक्त
मन मेँ जब कोई
बहुत फरफराता हो
उसे निकाल देना ही
अच्छा होता है
चुभे हुए कांटे की तरह . . .

मुझे तो जीना है
इस लम्हे को
जब बहती हवा
छुएगी मेरे तन बदन को
करेगी अठखेलियाँ
मेरे लटोँ से
मैँ भर लुँगी
उसे बाँहोँ मेँ
देखो अभी अभी
वह भागा है
छुड़ा के दामन
मेरी जुल्फोँ को बिखराकर
भागा है वह
बना के मुझे भूतनी की तरह!!!

— सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

One thought on “जीवन की डोर

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सीमा जी , आप ने जो कल्पना और यथार्थ के मेल से अपने विचार प्रगट किये हैं बहुत अछे लगे .

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