जीवन की डोर
पुरवैया हवाओँ के
संग संग लहराए
मेरे सपने और मेरा अतीत
अपनी लाल चुनरिया
को मैँने थाम लिया है
अपने आगोश मेँ
वैसे ही जैसे
सपनोँ को जीती हूँ
अपने अन्तःकोष मेँ . . .
करती हुँ इन्तजार
मकर संक्रान्ति का
जिस दिन खूब उड़ाउँगी
अपने पनीले सपनोँ को
पतंग की तरह
जिसे मिलेगा पूरा आकाश
उड़ान भरने को . . .
मेरा अतीत भी
बंद चिड़ीयोँ की तरह
कैद है पिँजड़े मेँ
उसे दे दुँगी आजादी
अभी इसी वक्त
मन मेँ जब कोई
बहुत फरफराता हो
उसे निकाल देना ही
अच्छा होता है
चुभे हुए कांटे की तरह . . .
मुझे तो जीना है
इस लम्हे को
जब बहती हवा
छुएगी मेरे तन बदन को
करेगी अठखेलियाँ
मेरे लटोँ से
मैँ भर लुँगी
उसे बाँहोँ मेँ
देखो अभी अभी
वह भागा है
छुड़ा के दामन
मेरी जुल्फोँ को बिखराकर
भागा है वह
बना के मुझे भूतनी की तरह!!!
— सीमा संगसार
सीमा जी , आप ने जो कल्पना और यथार्थ के मेल से अपने विचार प्रगट किये हैं बहुत अछे लगे .