कविता

ज़िन्दगी

ए जिंदगी

तू इतनी बेदर्द क्यों है

इन आँखों के आंसू

शुष्क और सर्द क्यों हैं

माना के १२ मॉस बहार नही होती

फिर जिंदगी के पत्तो पे इतना गर्द क्यों है

जब भी किसी को तड़पते हुए देखा

पोछे जख्म भावनाओं के मरहम से

फिर

मेरे ही सूखे जख्मो पे

छाये दर्द क्यों हैं

 

मैंने

जिंदगी को एक किताब समझा था

हर अक्षर ग्यान को

आफ़ताब समझा था

कर्तव्य को पृष्ठ

और सेवा  को ग्यान समझा था

ठोकर खाकर ज़माने की

खुले आसमान को छत

बंजर जमीन को मकान समझा था

क्यों रौंदती रही उस  मकान को

जिन्हे मैंने आरती  और अजान  समझा था

 

माँगा जब भी

उसके लिए माँगा

जिन्हे खुद   से ज्यादा

जरूरत वान  समझा था

खुद को निर्जीव

और दुसरो को प्राण समझा था

 

ऐ जिंदगी

अब तो बता

तू इतनी बेदर्द क्यों है

सबको एक ही पैमाने पे परखती है

या फिर

मुझे ही परखने  में मेंतना हर्ज़ क्यों है

 

इतनी बेदर्द क्यों है, क्यों है, क्यों है…….!!!!!

महेश कुमार माटा

नाम: महेश कुमार माटा निवास : RZ 48 SOUTH EXT PART 3, UTTAM NAGAR WEST, NEW DELHI 110059 कार्यालय:- Delhi District Court, Posted as "Judicial Assistant". मोबाइल: 09711782028 इ मेल :- [email protected]

3 thoughts on “ज़िन्दगी

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी विचारणीय कविता !

    • महेश कुमार माटा

      धन्यवाद बंधू 

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत सोचने वाली कविता है .

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