कविता : प्यार की आँखें
अगर
हो जाती प्यार की भी आंखें,
होने लगता नफा-नुकसान
तौल-मोल
जैसे बाज़ार में बिकता हो सामान ।
हर इंसान करने लगता अपने फायदे की बात
न मेल, न मुलाकात ।
तब कहां रह जाता प्यार में समर्पण
माद्दा
सब कुछ करने को अर्पण ।
ठीक ही हुआ
प्यार की आंखें नहीं हुयी
वो रह गया अंधा
तभी तो कायम है
प्यार में अपनत्व, समर्पण
आजतक,
जब सारी दुनिया खुद में मशगूल हो ।।
शुक्रिया
सुन्दर कल्पना !
मुकेश जी , कविता बहुत ही अच्छी लगी .