सूर्यास्त
संध्या समय सूरज की लाली पूरे आसमान को ढक रही है। ऐसा लग रहा है जैसे सूरज बताना चाहता हो- अरे कहाँ ! मुझमे कहाँ तपिश है ! ये तो महज़ मेरा रंग है।
शीतल खिड़की पे खड़ी मंत्रमुग्ध सी घर लौटते हुए पंछियों को देख रही है। अनगिनत बार बालों की लट को उंगली पर लपेटती है, छोडती है, जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही हो।
अभी कुछ समय पहले ही शैलेष का फोन आया था। शैलेष, एक मल्टीनेशनल कंपनी की नौकरी में नया नया लगा, युवा स्फूर्ति से भरा, उमंगवान एवं नए विचारों वाला लड़का है। शीतल से अभी एक माह पहले ही उसकी सगाई तय हुई है, और वो आए दिन उसे फोन करता ही रहता है। शीतल एक अद्रश्य डोर में खिंचती चली जा रही है, शैलेष की ओर। शैलेष भी शीतल के व्यवहार और सुंदरता पर कुछ इस तरह मंत्र मुग्ध है मानो उसे शीतल के सिवाए कुछ दिखता ही न हो। घर के लोग तो अत्यंत प्रसन्न हैं, अच्छा नौकरी में लगा लड़का मिल गया है और उनकी कोई मांग जांच भी नहीं है। पढ़ा लिखा कितना सज्जन परिवार है। घरवाले कहते नहीं थकते कि शीतल का तो भाग्य ही खुल गया, बड़े भाग्य वाली है शीतल।
इसी स्वप्नलोक में विचरण करती हुई शीतल ससुराल में कदम रखती है। मंगलगीत गाकर ससुराल में उसका स्वागत किया गया। बड़ी खुश थी शीतल। इसी खुशी के साथ भविष्य के सपने सँजोये शीतल और शैलेष हनीमून पर चले गए। दस दिन बाद जब लौटे तो घर से रिश्तेदार विदा हो चुके थे। आने के कुछ समय बाद ही व्यंग बाण कानों में पड़ा- “ अगर थकान उतार गयी हो महारानी की तो किचन में आ जाओ”
आवाज़ सासू माँ की थी और शीतल की जैसे सपने से आँख खुली। लगा शायद कुछ गलत सुन लिया होगा, या फिर माँ उनके हनीमून पर जाने से नाराज़ होंगी।
पर कुछ ही दिनों में हकीकत उसके सामने मुंह बाए खड़ी हो जाती है। जान पाती है कि ससुराल वालों के लिए जो कुछ भी उसके यहाँ से मिला है, वो कम है, दोयम दर्जे का है। उसने शैलेष से बात करने की कोशिश की, पर खुद शैलेष का भी यही मानना है। कहता है, उसे मिला ही क्या है? शीतल जब ये सब सुनती, उसे लगता जैसे उसके पैर के नीचे से ज़मीन निकलती जा रही है।
कैसी दुनिया है, ये कैसे कैसे लोग हैं ,कितने रूप हैं सबके। दुनिया को कुछ दिखते हैं पर असल में कुछ और। अक्सर पुरानी कहानियों में पढ़ा था की फलां बहुत मायावी था। तब लगता था की सब लेखक की कल्पना की उड़ान है। परंतु अब तो मायावी लोगों के बीच है वो। सामनेवाले के सामने कुछ और बनकर प्रकट होना और हकीकत में कुछ और होना, अपनी पहचान छुपा ले जाना, ये माया नहीं तो और क्या है। नहीं बिलकुल है, ये माया ही है और अभी भी आज की दुनिया में भी मायावी राक्षस होते हैं।
शीतल के लिए समस्या ये है कि कैसे कहे माँ, पापा से कि उनके समधी समधन को दहेज़ कम और दोयम दर्जे का लगता है। और तो और, दामाद को कैश चाहिए, कैसे कहे उनसे, उन्होने जो हीरा ढूँढा है उस हीरे में खोट है। बल्कि वो तो हीरा है ही नहीं, एक काँच का टुकड़ा है, जिसपे उसकी नौकरी के सूरज की वजह से निकालने वाली चमक से उसे वो हीरा समझ बैठे। कैसे कह दे की वे गलत थे, उनकी उम्र भर का तजुर्बा गलत निकला। नहीं कह सकती लेकिन समय ने किसे मजबूर नहीं किया है ? समय बड़ा बलवान।
समय किसी तरह कटता जाता है। सपने एक एक कर टूटते चले जाते हैं। कल तक वो जो ये सपने देखती थी ,की ससुराल में वो किसी को मौका नहीं देगी कुछ कहने का।उसे तो सब कुछ आता है। उसे कौन क्या ? बस थोड़ी मेहनत ज्यादा करनी होगी, वो कर लेगी।
लेकिन यहाँ कहानी ही बिलकुल उल्टी है उसके हर काम में जान बूझ कर कमियाँ निकली जाती हैं। रोजाना लड़ाई यहीं से शुरू होती, इसे यह नहीं आता, इसे वह नहीं आता, इसने यह कर दिया, इसने वह कर दिया। इसी सब से दिन की शुरुआत होती है, और हर लड़ाई पैसे की मांग पर खत्म होती है। वो समझ ही नहीं पा रही थी कि गलती हो कहाँ रही है ??
शैलेष का व्यवहार भी उसके लिए पहेली बनता जा रहा है। घंटों फोन से चिपका रहता है। उसकी कोई परवाह ही नहीं है। क्या ये वही शैलेष है जो विवाह से पहले उसके लिए पागल था, उसके लिए चाँद ज़मीन पर लाना चाहता था। इसी बात का फ़ायदा घर के बाकी लोग उठाते रहते हैं, उसे गलत साबित करते रहते हैं। शैलेष पंद्रह पंद्रह दिन तक कंपनी के काम से घर से बाहर रहता है। कहाँ जाता है, क्यू जाता है, न कोई उससे पूंछता है, न वो किसी को बताता है। जब भी घर आता है सभी के लिए महंगे उपहार लाता है। सब खुश ! किसी को ज़रूरत ही नहीं है की कुछ पूछे, कि माजरा क्या है। और जिसे पूछना है, शीतल, उपहार पाने वालों की फहरिश्त से शीतल का नाम कब का कट चुका था, साथ ही उसकी ज़ुबान बंद की जा चुकी है डरा धमका के।
ससुराल वाले तरह तरह से दवाब बनाते हैं,और एक दिन बात इतनी बढ़ जाती है की उसके माँ पापा को बुला लिया जाता है। कह दिया जाता है आप अपनी बेटी को ले जाइए। शीतल के माँ पापा अवाक-
कुछ संभले तो माँ ने पूछा- “कुछ गलती हुई हमारी बेटी से ?”
हाथ जोड़ पूछते हैं, कि आखिर बात क्या है ?
दो टूक बोल दिया जाता है की या तो दो लाख रुपये दो नहीं तो अपनी बेटी को ले जाओ।
शीतल माँ पापा के साथ अपने मायके आ जाती है।शीतल के पापा हर तरह से पैसे का इंतजाम करते हैं। एक मध्यम वर्गीय पिता कभी इतना धनवान नहीं हो पता की मनचाहा जोड़ पाये, मन चाहा खर्च कर पाये। फिर भी, जैसे भी बनता है कुछ पैसा जमा करके वो उसे भेज देते हैं।
शीतल नहीं जाना चाहती थी, बोली वो वहाँ नहीं जाएगी, जहां उसे इंसान तक नहीं समझा जाता। वो ऐसी जिंदगी नहीं चाहती। वो नौकरी कर लेगी, कोई काम कर लेगी, किसी के उपर बोझ बनकर नहीं रहेगी। आगे पढ़ाई करेगी, लेकिन ससुराल नहीं जाएगी। मगर हार जाती है, जब माँ कहती है की बेटा लोग क्या कहेंगे? तलाक़शुदा लड़की अगर घर में रहेगी ,उसकी छोटी बहन के लिए तो कोई रिश्ता ही नहीं आएगा। आखिर शीतल अपनों के तर्क से निरुत्तर होकर बेमन से अपने ‘असली’ घर आ जाती है।ससुराल में पति एक एक पैसे का हिसाब करता है। आखिर पूरा पैसा क्यू नहीं दिया ससुरालवालों ने।
इन्हीं सब के बीच शीतल को पता चलता है की शैलेष के किसी और से संबंध हैं। शैलेष किसी लड़की से शादी करना चाहता था, मगर घर में सहमति न बन पने के कारण ऐसा न हो सका। शैलेष अभी भी उसी के घर जाता है, वहीं रहता है। उसका पति कहीं दूसरी जगह नौकरी करता है और उसने घर पर बता रखा है की वो उसका दूर के रिश्ते का भाई है। शीतल जब ये सुनती है, तो उसे काटो तो खून नहीं। सब कुछ बताने वाली, उसकी सास जो उसे सताने के लिए जानते बूझते बताती है और बाद में हँसती है।
शैलेष आए दिन बहाने बना बना भागता रहता है कि आज उसे कंपनी के काम से इधर जाना है आज उधर जाना है। शीतल को ये देख कर घुटती रहती है। उफ कैसा है उसका पति, और कैसी है ये ज़िंदगी?
एक दिन शीतल की बचपन की सहेली, आरती का फोन आता है। उसके पति का ट्रान्सफर उसी के शहर हुआ है। आरती बहुत खुश है की अपनी बचपन की सहेली को एक बार फिर से मिलेगी। कितनी बातें उसे बतानी हैं, वो दोनों तो कबसे मिले ही नहीं। जब से दोनों की शादी हो गई थी तभी से एक दुसरे का हाल ही नहीं ले पाये।
आरती और शीतल एक साथ एक ही जगह बड़े हुए थे। दोनों की पसंद एक, विचार एक। दोनों निडर, तेज़ और पढ़ाई में अव्वल। कितना कुछ शीतल ने आरती से ही सीखा था। आरती इंतज़ार में है, की उसकी सहेली अभी कहेगी चल जल्दी से आ जा। मैं गरमा गरम पकोड़े तलती हूँ तेरे लिए, दोनों साथ ही खाएंगे। लेकिन शीतल चुप, उसने एक बार भी नहीं कहा की, तू घर आ जा आरती। उसके इस बदलाव से आरती हैरान है। फिर भी सहेली से मिलने के मोह में सारे बंधन तोड़ देती है, कहती है की अपने घर का एड्रैस दो। वो उससे मिलने आएगी। लेकिन शीतल मना कर देती है की घर में पुताई का काम है इसलिए वो उसे खुद बाहर मिल लेगी। वो नाहक ही परेशान होगी। दोनों मिलने की जगह तय कर लेते हैं। आरती उसका बहाना सुनकर हैरान रह जाती है। सोचती है, ये लड़की उसे टालने की कोशिश क्यों कर रही है ? आरती समझ जाती है कि कुछ तो गड़बड़ है! कुछ तो है वरना उसकी सहेली जो सारी बाधाएँ तोड़ कर भी उससे मिलना चाहती थी आज उसे टाल रही थी!!!
आरती जब उससे मिलती है तो उसे पहचान ही नहीं पाती। देख कर समझ जाती है की कुछ तो सही नहीं हैं। वो उस से पूछती है, पहले पहल शीतल बताना नहीं चाहती। पर इंसान किसी न किसी के सामने टूट ही जाता है। बताना शुरू करती है तो आरती हैरान रह जाती है। पूछती है, क्यूँ सह रही है वो ये सब। क्या खुद पर यकीन खो चुकी है ? क्या वो अपनी जिंदगीको खुद नहीं संभाल सकती? क्या वो समाज, परिवार की परवाह किए बिना नहीं कुछ कर सकती। समाज उसे दे ही क्या रहा है? किसी ने उसकी परवाह की? फिर वो क्यूँ पागल है इस समाज के लिए? और तू कुछ गलत नहीं कर रही, बस जीना ही तो चाहती है। आरती कहती है वो उसकी मदद करेगी, वो हिम्मत रखे। शीतल मना कर देती है, कहती है वो कुछ नहीं कर पाएगी। कोई उसे कुछ करने ही नहीं देगा…..
इंसान की अपनी हिम्मत तो हमेशा बहुत होती है, लेकिन जिन लोगों के स्वार्थ उस इंसान से जुड़े होते हैं वो लोग उस इंसान को धीरे धीरे ऐसा तोड़ देते हैं कि उसे कुछ करने लायक ही नहीं छोडते। ऐसा ही कुछ शीतल के साथ भी हुआ है।आज वो मदद तक के किए लिए तैयार नहीं है, जानती है उसके घर के लोग कैसे हैं। अगर आरती ने उसकी मदद की तो उसका भी जीना हराम कर देंगे। वो आरती की जिंदगी में जहर नहीं घोलेगी,और चली जाती है।
घर आती है तो पाती है शैलेष मौजूद है और उसकी सवालिया निगाहें उसे घूर रही हैं।
“कहाँ गयी थी” शैलेष गुर्राया।
वो बताने से मना कर देती है, बहस बढ़ती जाती है। शीतल पूछ बैठती है कि पहले वो बताए की वह कहाँ से आया है, चार दिनों बाद ? शैलेष के अंदर के मर्द को शीतल का सवाल करना बर्दाश्त नहीं होता। अपना आपा खोते हुए उसके गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ कर गालियां देता हुआ कमरे से बाहर चला जाता है।
घर में सभी कुछ इतना सामान्य रहता है, जैसे कुछ हुआ ही ना हो। बल्कि आज तो घर के लोग ऐसे व्यवहार करते जान पड़ते हैं जैसे कोई उत्सव हो घर में। इस उत्सव में खोई शीतल, पता नहीं अपने लिए क्या तलाश करने की उधेड़बुन में काम में लगी रहती है, गुमसुम, निशब्द, लाचार और खामोश….
अगले दिन चाय की तलब के साथ शीतल की तलाश शुरू होती है। मगर शीतल कहीं नहीं है। थोड़ी ही देर में, पूरे मोहल्ले में कान दर कान एक चर्चा, फुसफुसाहट से निकलकर खबर का रूप ले लेती है। लोगों का आना जाना लगा है शैलेष की बीवी ने आत्महत्या कर ली है।
आज उसकी परवाह में दुनिया उमड़ रही है। कौन शीतल, किसकी बहू, क्यूँ, कैसे और ना जाने कितने अनगिनत सवाल लोगों के जुबान पर। मगर एक जिंदा इंसान के लिए क्या कभी कोई पूंछता है कौन ,कैसे, शायद नहीं ……
आरती भी आई हुई है, बेचैन है। कितने सवाल उमड़ रहे हैं उसके मन में। सोच रही है, क्या एक औरत सच में इतना कमजोर होती है या उसे कमजोर कर दिया जाता है। सोचती है की वो कभी भी अपनी बेटी को इस भूखे समाज के आगे निहत्था नहीं डालेगी, कभी नहीं। हर हाल में वो उसे एक मजबूत स्त्री बनाएगी। जिस से आगे चल कर वो किसी की मोहताज न हो, किसी की भी नहीं, यहाँ तक की अपने माँ बाप की भी नहीं !!
आज शीतल सभी का कर्ज़ उतार गयी है। माँ बाप का, जो उसे मजबूत वजूद न दे सके, पति का जो उसका हो ही ना सका और शायद ससुराल का भी।आज एक इंसान सभी का कर्ज़ उतार कर चला गया है, दूर, बहुत दूर। अपने सभी रंग बिरंगे सपनों के साथ मगर क्यूँ ?
क्या ये हमारा सभ्य बुद्धिजीवी समाज जवाब देगा? क्यों बहू को घर का सदस्य स्वीकारने में आज भी समाज को हिचकिचाहट होती है? क्यों, क्यों,आखिर क्यों ?
आज भी सूरज डूब रहा है ,पंछी घर लौट रहे हैं पर ……………….
बहुत अच्छी कहानी !
समाज के बहुरुपिए देख कर दिल से निकली संवेदना का ही चित्रण है
कहानी दर्द से भरी हुई है . जब मुझे लोग धर्म कर्म की बातें कहते हैं तो मुझे बहुत गुस्सा आता है . किया यही है हमारा समाज ? किया हमारे धर्म ने यही सिखाया है ? किया फैदा है पुराने ग्रंथों के अर्थ निकाल निकाल कर वालों की सकिन्न उतारने का जब हमारी बहु बेतिओं का यह हाल किया जाता है ? जब कई कहानिआन ऐसी पड़ता हूँ कि जिस में बूड़े माँ बाप को दुखी किया जाता है तो यह सभी भूल जातें हैं कि इन्ही सासू माओं ने भी अपनी बहुओं को दुःख पौह्न्चाया होता है जिन का बदला बहुएँ तब लेती हैं जब सासू माँ बूड़ी हो जाती है और बहु भी जब तक घर में अपने पैर जमा लेती है . धिक्कार ऐसे लोगों पर .
सच में गुरमेल जी ये समाज वाकई मायावी ही लगता है।