संस्मरण : भात की खुशबू आज भी याद है…..
बात उन दिनों की है, जब मैं बुनियादी स्कूल में पढ़ता था। ये वो दिन थे, जब खाकी रंग की खद्दर की पैण्ट और नीली कमीज स्कूल में चला करती थी। प्लास्टिक के जूते चलते थे। उस समय प्लास्टिक के जूते यदि ‘बाटा’ कम्पनी के हैं, तो अच्छा-खासा रौब गालिब होता था।
ताजवीर मेरा दोस्त था। ताजवीर मुझसे लंबा था। पढ़ने-लिखने में वह होशियार था। फिर भी ताजवीर न जाने क्यों मेरी नकल करता। मैं जैसा करता, वो भी वैसा ही करता। मैं घर में पढ़ने लगता, तो वह भी पढ़ने बैठ जाता। मैं घूमने निकलता, तो वो भी पीछे-पीछे आ जाता।
ये ओर बात थी कि ताजवीर मेरी खूब मदद करता था। हम दोनों एक-दूसरे से अपनी बातें साझा करना नहीं भूलते थे। हम एक-डेढ़ घण्टा पैदल चलकर स्कूल पहुँचते थे। दूर-दूर तक मोटर मार्ग नहीं था। गाँव से कोई शहर जाता, तो बूढ़े-बच्चे और जवान मुँह अँधेरे उसे विदा करने जाते। गाँव में बनी चीजों की छोटी-छोटी पोटलियाँ बनाई जाती थी। पोटलियों के दो-तीन नग बनाये जाते थे। इन नगों को सिर पर उठाकर मोटर मार्ग तक छोड़ने जाने का काम हम बच्चों का ही होता था।
उन दिनों शहर जाने वाले का सामान छोड़ना, गर्व की बात समझी जाती थी। बदले में पचास पैसा और कागज का एक रुपए का नोट बख्शीश मिला करती थी। शहर से गाँव आने वाली बस सेवा शाम को पहुँचती थी। यही बस सुबह शहर लौट जाया करती थी।
हम बच्चों को बस देखने का मौका कभी-कभी ही मिलता था। स्कूल में आकर हम बताते थे कि इस बार की बस का नम्बर फलाँ-फलाँ था। टेलीफोन के बारे में हमने सुना भर था। हम रेडियो ही सुना करते थे। टी0वी0, सिनेमा और रेल के बारे में हमें कुछ खास जानकारी नहीं थी। कभी-कभी आसमान में उड़ते सैन्य जहाज हमारी चर्चा का हिस्सा बन जाते।
हमारी स्कूली किताब हमारे लिए ज्ञान और सूचना का भण्डार थी। बुजुर्गों की बातें हमारे लिए अनमोल धरोहरें थीं। इन सबसे आगे था, रेडियो। रेडियो भी हर घर में नहीं था। हम बच्चों का सीमित संसार था। किसी को कोई जल्दीबाजी नहीं थी। कोई हड़बड़ाहट नहीं थी। न ही कोई दबाव था। हम कभी किसी प्रकार के तनाव से दो-चार नहीं हुआ करते थे। कुल मिलाकर हम अपने संसार में बहुत खुश थे। अलबत्ता जो शहर से लौटते हमारी उत्सुकता उनके सामान को टटोलने-देखने की जरूर हुआ करती थी।
मेरे गुरुजी हमारे ही गाँव के थे। छोटा हो या बड़ा। गाँव का हर आदमी उन्हें ‘गुरजी’ ही कहता था। गुरजी के सिर के बाल झक सफेद हो चुके थे। वह आँखों में मोटा चश्मा पहनते थे। खादी का कुर्ता और चौड़ी मोरी वाला लंबा खद्दर का पायजामा। यही उनका पहनावा था। उनके कांधे में हमेशा झोला टंगा रहता था। दांये हाथ पर लंबी छड़ वाला काला छाता उनकी पहचान था। वे कभी-कभी उसे गरदन के पीछे कुर्ते में खोंस कर चलते थे।
मुझे याद नहीं पड़ता कि वे कभी शहर गए हों। हाँ। विभाग के काम से वे जरूर बैठकों में जाते रहे होंगे। वे हल लगाते थे। क्यारी बनाते थे। जंगल जाकर लकड़ी काटते थे। जड़ी-बूटियों का उन्हें अच्छा ज्ञान था। गाँव की दुख-तकलीफों में खड़े होते थे। शादी-ब्याह में सबसे पहले और सबसे आगे खड़े रहते थे। मजेदार बात यह थी कि विशालकाय लोहे की काली कडाहियों में शादी के बाराती-घराती के लिए भात भी वे ही पकाते थे। दूर-दूर तक वे अकेले पढ़े-लिखे और संवेदनशील इंसान माने जाते थे। उनके सैकड़ों विद्यार्थी रहे होंगे, जिन्हें अक्षर ज्ञान देने वाले वे पहले अध्यापक थे।
बदलाव प्रकृति का नियम है। यह जरूरी भी है। आज जो पूरा लगता है, कल अधूरा लगेगा। तभी तो नित नये अनुसंधान होते रहेंगे। तभी तो हम यह कहेंगे कि हमारे जमाने में ऐसा कहाँ होता था। तभी तो नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से किस्सा-कहानी सुनेगी। अन्यथा सब कुछ ठहर जाएगा। कहने-सुनने को कुछ नहीं रहेगा। यही हमारे साथ हुआ। गुरजी कब हमारे लिए अतीत की बात हो गए,पता ही नहीं चला।
दरअसल गुरजी रिटायर होने वाले थे। वे अक्सर हमसे कहते- ‘‘अरे। तुम्हारे बाप-दादाओं को भी मैंने पढ़ाया है। अब बहुत हो गया। अब तुम्हें शहर से पढ़ाने कोई नए ‘मास्साब’ आएंगे। तुम्हें तब पता चलेगा कि मास्टर कैसे होते हैं। पढ़ाई कैसी होती है।’’ हमें लगता कि गुरजी यूँ ही मजाक कर रहे हैं। ‘रिटायर’ शब्द हमारे सीमित संसार के शब्दकोश में जो नहीं था। लेकिन वही हुआ। जो गुरजी ने कहा था।
एक दिन अचानक मैंने सुना कि नये मास्टर जी गाँव में पहुँच चुके हैं। राम रतन सिंह राव। इतना लंबा नाम भी किसी का हो सकता है! मैं चौंक पड़ा था। नये मास्साब गुरजी के यहाँ ठहरे हैं। यह सुनते ही मैं दौड़कर गुरजी के घर जा पहुँचा। ताजवीर मुझसे पहले वहाँ खड़ा मुस्करा रहा था। वह नये मास्साब को पानी पिला रहा था। मुझे ताजवीर का मुझसे पहले वहाँ पहुँचना अच्छा नहीं लगा। मैंने मन ही मन में ठान लिया था कि मैं नये मास्साब की नज़रों में अच्छा विद्यार्थी बन कर दिखाऊँगा।
यह शाम का समय था। खलिहान में गाँधी आश्रम की नई दरी बिछाई गई थी। नये मास्साब को हम बच्चों ने आसानी से पहचान लिया था। एक तो वे टेरीकाॅट की पैण्ट-कमीज पहने हुए थे। गाँव में शायद ही कोई ऐसे कपड़े पहनता था। उनके पैरों में भूरे रंग के जूते चमचमा रहे थे। यह जूते चमड़े के थे। ऐसे जूते मैंने पहली बार देखे थे। मास्साब का रंग गोरा था। सिर के बाल काले और घुंघराले थे। बगल में दो बड़े नए सूटकेस शान से खड़े थे। वे कुर्सी पर बैठे हुए थे। हमारे गुरजी जमीन पर पालथी मार कर बैठे हुए थे। हमने पहली बार ऐसा आदमी देखा था। जिसके चेहरे पर न दाढ़ी थी, न ही मूंछ।
राम रतन सिंह राव मुझे पहले ही नज़र में भा गए थे। स्कूल में उनका आज पहला दिन था। पहले ही दिन उन्होंने हम सभी से हमारा नाम पूछा। घर-परिवार के बारे में पूछा। कितने भाई हैं? कितनी बहिन हैं? पिताजी क्या करते हैं? घर में कौन-कौन हैं? पहला दिन हम बच्चे अपने ही बारे में बताते रहे। छुट्टी का घंटा जब बजा, तब पता चला कि सारा दिन बीत गया है। मास्साब की बाँयी कलाई पर सोने की घड़ी है। ताजवीर बता रहा था। तब मुझे सोना-चाँदी के बारे में कुछ खास पता भी नहीं था। ताजवीर मास्साब के बारे में बहुत सारी बातें बता रहा था। मसलन उनके पास क्या-क्या है। वे ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें लेकर आए हैं। उनके पास अखबार भी है।
अखबार! यह शब्द मेरे लिए नया था। मैं सोच रहा था- ‘‘ये ताजवीर तो मेरे से आगे निकल रहा है।’’ मैंने चाहकर भी ताजवीर से अखबार के बारे में नहीं पूछा। घर लौटा। खाना खाया। फिर मैं सीधे मास्साब के घर की ओर चल पड़ा। मास्साब को गाँव के सबसे ऊपर वाला एक खाली मकान रहने के लिए दिया गया था।
राम रतन सिंह राव मेरे लिए ही नहीं, हम सबके लिए दिलचस्प इंसान हो गए थे। वे आए दिन शहरों के किस्से सुनाते। देश-दुनिया के बारे में बताया। चाँद-तारों के बारे में बताया। उन्होंने हम बच्चों को अखबार के बारे में बताया। बच्चों की पत्रिकाओं के बारे में बताया। सिनेमा के बारे में बताया। रेल के बारे में बताया। वे ही थे, जिन्होंने हमें कैमरा दिखाया। दूरबीन दिखाई। उन्होंने ही बताया था कि सूरज एक जगह खड़ा है। हिलता भी नहीं। हमारी उत्सुकता बढ़ाने के लिए वे नित नई चीजें स्कूल में लाते। हम अपने हाथों में पकड़कर उन नायाब चीज़ों को छूते थे। सहलाते थे।
गाँव में ढिबरी और काँच की शीशी पर केरोसीन वाले लैम्प जलते थे। वे ही तो थे, जो सबसे पहले लालटेन और गैस लाईटर लेकर गाँव में लाए थे। उन्होंने ही एल.पी.जी. गैस के बारे में बताया था। उनकी बातें किसी किस्सा-कहानी की तरह लगती थीं। गाँव में पहला ब्लैक एण्ड वाइट टी0वी0 मास्साब ही लाए थे। उस दिन तो गाँव में भीड़ जुट गई थी। कभी-कभी तो लगता था कि मास्साब का मकान ही समूचा गाँव है। कोई किसी की ढूँढ-खोज कर रहा होता तो सब एक ही सवाल पूछते-‘ ‘अरे! मास्साब के यहाँ तो नहीं है?’’
मास्साब ने ही हमें बताया था कि शहर में आदमी आदमी को खींचता है। हाथ रिक्शा और साईकिल रिक्शा के बारे में उन्होंने ही हमें पहली दफा जानकारी दी थी। वे हर चीज़ का चित्र श्याम पट्ट पर बनाते। उनके बनाये चित्र बहुत ज्यादा जीवंत तो नहीं होते थे। लेकिन चित्र को देखकर हम उस अनदेखी वस्तु की छवि मन में बना लिया करते थे।
मास्साब की बातों में जादू हुआ करता था। पढ़ाते-पढ़ाते वे किस्सा-कहानी सुनाने लग जाते। मुझे याद है कि वो अक्सर कहते थे कि एक दिन वो भी आएगा, जब मशीन से नोट निकला करेंगे। जब दूर बैठे हुए आदमी से हम साक्षात् बात कर रहे होंगे। वो दिन भी आएगा, जब चाँद में शहर बनेंगे। आज सूचना और तकनीक ने हमें ए.टी.एम. उपलब्ध कराया है। आज इंटरनेट के माध्यम से हम समूची दुनिया से जुड़ गए हैं। वे दूरदर्शी भी थे। कई लोग उनसे सलाह-मशविरा भी लेने आते थे।
चलिए। फिर वहीं लौटते हैं, जब मैं सीधे मास्साब के घर की ओर चल पड़ा था। मैं दबे पाँव मकान के मुख्य द्वार पर खड़ा था। ‘‘कौन?’’ मास्साब ने भीतर से ही पूछा। मैं भाग जाने को हुआ।
‘‘अरे ! मनोहर तुम? चले आओ। भागते क्यों हो?’’ मास्साब जैसे सब समझ गए थे।
मास्साब की रसोई में भात पक रहा था। लेकिन भात की खुशबू मुझे मदहोश कर रही थी। हम गाँव वाले तो मोटा अनाज खाते थे। मँडुवा, झंगोरा, सोयाबीन, तोर और मकई। हम उन्हीं सब्जियो, दाल और अनाज के बारे में जानते थे, जो हमारे खेत-खलिहान में उगाया जाता था। कभी तीज-त्योहार में ही चावल बनता था। वह भी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान का मोटा चावल। वह भी हमारे लिए किसी बड़ी दावत से कम न था। गुड़ और गुड़ से बनी चीजों का स्वाद भी मास्साब ने हमारी जीभ को चखाया था।
मैं मास्साब के पास जो नई चीज़ें थीं, उन्हें देखने आया था। मुझे लगा था कि वे बड़े चाव से मुझे एक-एक चीज़ के बारे में बताएंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मास्साब प्याज और मूली काट रहे थे। सलाद बना रहे थे। मैं तो चूल्हे की आग पर पक रहे भात की खुशबू को जोर-जोर से साँस लेकर अपने भीतर सहेज रहा था। मैं लम्बी साँस लेते हुए आँखें बंद कर रहा था। मास्टर जी ने देख लिया। वे हँसते हुए बोले-‘‘खाना खाया कि नहीं?’’
मैंने ‘न’ में सर हिलाया। मास्साब ने दो स्टील की चमचमाती थालियाँ पानी से धोई। साफ कपड़े से पोंछते हुए दरी के ऊपर रख दी। भात पक चुका था। गाँव में सभी के पास एल्युमिनियम और काँसे की थालियाँ होती थीं। मैंने एक थाली हाथों में उठा ली। थाली में अपना चेहरा साफ जो दिखाई दे रहा था। मास्साब ने बताया कि यह स्टील है। एक धातु है। अब मास्साब एक-एक कर अपनी चीज़ों के बारे में बताने लगे। लेकिन मेरा ध्यान तो अब भात पर ही था। फिर मास्साब ने दोनों थालियों में दाल-भात परोसा।
वाह! अहा ! जितने भी खुशी और आश्चर्य के विस्मयादिबोधक चिह्न होते हैं, वे मेरे मन में उछल रहे थे। भात की खुशबू के सामने दाल कौन सी बनी थी, यह जानने की मैंने कोशिश नहीं की थी। घर से भरपेट खाना खाकर ही मैं मास्साब के घर की ओर चला था। उसके बावजूद मैंने छककर दाल-भात खाया।
मैंने मास्साब से पहले ही अपनी थाली चाट दी थी। दोबारा परोसने का कोई विकल्प नहीं था। यह मैं पहले ही देख चुका था। मैं उठा और मास्साब के लिए धारे से एक बाल्टी पानी भरकर लाया। दोनों पतीले और दोनों थालियाँ मैंने मांजी। मास्साब मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मज़ेदार बात यह थी कि बरतन मांजने का सही तरीका भी उन्होंने मुझे बताया था। मास्साब मुझे किसी दूसरी दुनिया के प्राणी लगे थे। मैं और मेरे जैसे बच्चे तब कहाँ जानते थे कि गाँव से बाहर की दुनिया में शहरों के शहर भी बसा करते हैं।
मैं उछल-उछल कर अपने घर लौटा था। मैंने अपने पेट पर कई बार हाथ फेरा था। गोल लोटे का आकार पेट पर उभर आया था। ताजवीर को मैंने सारा किस्सा सुनाया। ताजवीर ने कहा- ‘‘कल से मैं भी आऊंगा। मास्साब के खाना खा लेने के बाद जो भात बचेगा, एक दिन तू खाएगा और एक दिन मैं खाऊंगा।’’
मुझे उसका सुझाव मानना पड़ा। हम दोनों स्कूल की छुट्टी के बाद तेज कदमों से घर लौटते। खाना खाते और मास्साब के घर की ओर चल पड़ते। एक दिन धारे से पानी मैं लाता और ताजवीर बरतन धोता। दूसरे दिन मैं बरतन मांजता और धारे से पानी ताजवीर लाता। एक दिन बचा-खुचा भात ताजवीर खाता। दूसरे दिन भात खाने की बारी मेरी होती। हम दोनों एक-एक दिन का इंतजार बड़ी बेसब्री से करते थे। पकाने वाले बरतन में बचे भात से हम यह अंदाजा लगा लेते थे कि आज मास्साब ने भूख से कम भोजन किया है या औसत या फिर औसत से अधिक।
पहले-पहल तो कभी ताजवीर के हाथ, तो कभी मेरे हाथ मुट्ठी भर भात ही हाथ लगता था। लेकिन धीरे-धीरे मास्साब शायद जानबूझकर चावल ज्यादा भिगो देते थे। शायद वे यह नहीं जान पाए कि हम दोनों में भात खाने की बारी का कोई गुप्त समझौता हुआ है।
आज ताजवीर विदेश में है। वो किसी बड़े होटल का सबसे बड़ा रसोईया बन चुका है। उसने तो न जाने दुनिया के किन-किन खेतों के चावल से बना भात खा लिया होगा। वहीं आज मैं अध्यापक हूँ। मैं भी तमाम किस्म के चावलों से बना भात खा चुका हूँ। लेकिन मास्साब की रसोई में बने भात की खुशबू जैसे आज भी दिल-दिमाग में ताज़ा है।
–मनोहर चमोली ‘मनु’
बहुत रोचक संस्मरण !
बहुत खूब .