निर्बल नहीं सबल बनो
एक सवाल है मेरा इस मनुष्य जाति से
एक कोशिश है
हो रहा ये जो नारी जाति के साथ व्यवहार है
अवगत तो है सारे
फिर भी क्यूँ उठ रहा ये कोहराम है
काश के में हर दिल को चीर पाऊँ
और सन्देश हर इंसान तक पहुचा पाऊँ
वो कौनसा कार्य है
जो नारी के वश नहीं?
फिर भी निर्बल है ?
डर नहीं रात्रि के अन्धकार का
डर है भेडियों का समाज है
क्यूँ ये समाज कुरूप है
अन्धकार में आँखों से दिखता नहीं
पर क्या आत्मा भी सो जाती है ?
यही वजह है
मेरे आज़ाद भारत की नारी
रात्रि में घबराती है
पढ़ लिख कर भी क्या पा लिया इसने
आश्रित किया खुद को
कभी पिता के कभी पति के लिए
क्यों अपना अस्तित्व भुला दिया इसने
आश्रय लेना गलत नहीं
पर लाठी टूट जाये
तो गिरकर संभल ना पाना
ये औरत की पहचान नहीं
सशक्त हो नारी आज की
पर अन्नपूर्णा हो
ये न भूल जाना कभी
कभी बेटी का कर्त्तव्य निभाया
कभी पत्नी का
पर किस आँगन को अपना कहे
ये समझ न आया
दहेज़ की ये आग
कितनी नारियों का भक्षण करेगी
फिर भी क्यूँ इस आग पर
कोई नियंत्रण नहीं
क्यूँ ये बाज़ार है लगा ?
क्यूँ है लड़के बिक रहे ?
लालच का कोई अंत नहीं
ये लालच के सौदागर
कितनी औरतों का अंत बन रहे
मेरा आवेदन है
हर नारी अपनी सोच के हिसाब से
सशक्त हो पढ़ाई ही एक माध्यम नहीं
नारी अपने गुणों का विस्तार करे
कोई चाहे तो कढ़ाई करे
कोई चाहे तो हलवाई बने
अपने दोनों हाथों में
ताकत समेटे
वो हर जंग जीतने को तैयार हो
किसी की वजह से नारी बिखरे नहीं
वो समेटे संसार को
कभी किसी की शक्ति बने
कभी ममता में आँचल लिए
किसी की माँ बने
कभी काली का समावेश हो
तो झांसी की रानी बने
कभी अन्नपूर्ण बन
हर जीव को तृप्त करे
सेहेंशीलता की मूरत बने
तो पत्थर भी बोल उठे
निर्बल नहीं सबल बनो
पहचानो खुद को
सूख गयी जो नदियाँ है
और जो मुरझा गए पेड़ हैं
उनको भी आश्रय दे सबल करो
बहुत सशक्त कविता, अंकजा जी !