वेदों में ईश्वर से की जाने वाली एक सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना’
संसार का विवेचन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि यह ससार किसी अदृश्य सत्ता द्वारा बनाया गया है और उसी के द्वारा चलाया जा रहा है। वही सब प्राणियों को जन्म देता है और उनका नियमन करता है। संसार व सृष्टि की भिन्न-भिन्न रचनाओं पर ध्यान दें तो लगता है कि वह सत्ता जिसे ईश्वर कहा जाता है, जड़ न होकर चेतन स्वरूप वाली सत्ता है। वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, दयालु, अजन्मा, अनादि, अमर, अविनाशी, नित्य, पवित्र, अनुपम व सर्वतोमहान है। इसके विपरीत जब हम मनुष्य आदि सभी प्राणियों पर विचार करते हैं तो इसमें हमें जड़ व चेतन तत्वों का संयोग अनुभव होता है। शरीर जड़ पदार्थों से बना है और इसमें एक चेतन तत्व ‘जीवात्मा’भी है जो कि संवेदनशील अर्थात् सुख व दुःखों की अनुभूति करने वाली है। शरीर में रहने वाला यह जीवात्मा प्रसन्नता में हंसता है और दुःखी होने पर रोता है। कुछ बातें उसके वश में है और कुछ उसके अपने वश में नहीं हैं। वह कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने में परतन्त्र है। कोई चोर यह नहीं चाहता कि वह पकड़ा जाये और उसे दण्ड मिले परन्तु अनेकों बार वह पकड़ा जाता है और उसको दण्ड भी मिलता है। यहां वह स्वतन्त्र न होकर परतन्त्र सिद्ध होता है।
जब मनुष्य दुःखों में फंसा होता है तो वह दूसरों से प्रार्थना करता है परन्तु कई बार कोई उसकी सहायता नहीं कर पाता। अन्ततः एक अन्तिम सहारा बचता है जो कि अदृश्य ईश्वर का होता है। वह उससे आंखे बन्द कर प्रार्थना करता है। अपना दुःख बतलाता है और उसके निवारण की प्रार्थना करता है। ऐसा करके उसे शान्ति मिलती है। अनेक मामलों में कई बार कुछ समय बीतने पर समस्या का हल व दुःख की निवृत्ति हो जाती है। मनुष्य सुखी होकर फिर उस सत्ता को भूल सा जाता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती 1825-1883 अपने समय के वेदों एवं वैदिक साहित्य के महान विद्वान, ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए एक सिद्ध योगी, विचारक, चिन्तक, सत्य के प्रति अपूर्व निष्ठावान, ईश्वर भक्त, देशभक्त, परोपकारी, समाज सुधारक, पाखण्डों के खण्डनकत्र्ता, कुरीतियों के निवारक, सामाजिक असमानता-विषमता-छुआछूत आदि के विरोधी व समानता, निष्पक्षता, सत्य व न्याय के पक्षधर व प्रचारक थे। उन्होंने अपने विपुल ज्ञान भण्डार के आधार पर कहा है कि मनुष्य प्रतिदिन प्रातः व सायं अनेक कर्तव्यों का पालन कर्तव्य हुए ईश्वर का सम्यक ध्यान जिसे उन्होंने “सन्ध्या” नाम दिया तथा यज्ञ वा अग्निहोत्र करने का विधान किया है। उन्होंने चारों वेदों से चुनकर ईश्वर की प्रार्थना व उपासना के 8 मन्त्रों का सरल व सुबोध हिन्दी में व्याख्यान या अनुवाद व भावानुवाद किया है। इन 8 मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र हमारे इस लेख का विषय है। यह मन्त्र है, “ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रन्तन्नऽआ सुव।।“ इस मन्त्र के महर्षि दयानन्द कृत वेदार्थ पर दृष्टि डालते हैं।
ओ३म् विश्वानि देव: हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर!
सवितर्दुरितानि परा सुव: आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए। और
यद् भद्रन्तन्नऽआ सुव: जो कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।
इस मन्त्र में ईश्वर का उपासक ईश्वर से स्तुति करते हुए कहता है कि ईश्वर सकल जगत् का उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप तथा सब सुखों का देने वाला है और परम ऐश्वर्यवान् है। अनन्तर प्रार्थना व उपासना करते हुए उपासक अपनी आत्मा में विद्यमान ईश्वर से कहता है कि आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो उपासक के लिए कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने वाले को ईश्वर प्राप्त करे वा कराये।
महर्षि दयानन्द का यह सबसे प्रिय मन्त्रों में से प्रिय एक मन्त्र था। हम समझते हैं कि यह मन्त्र से प्रत्येक मनुष्य को प्रातः सायं अनेक बार उच्चारित कर मन्त्र के भावों को अपने हृदय में भरकर ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। इससे मनुष्य का पूर्ण विकास व उन्नति सम्भव है। जिस व्यक्ति के जीवन में कोई दुर्गुण, दुःख, व दुर्व्यसन नहीं है, वह कोई कम बड़ी बात नहीं है। हम अपने जीवन में इस प्रार्थना को सफल पाते हैं और इससे हमें अनेक लाभ हैं। 62 वर्ष की अवस्था में भी हम लगभग स्वस्थ हैं। हमारा अधिकांश समय स्वाध्याय, लेखन, पत्राचार व मित्रों आदि से धार्मिक व सामाजिक तथा देश व समाज हित की बातों में व्यतीत होता है। प्रार्थना के दूसरे भाग में कहा गया है कि जो कल्याणकारण गुण-कर्म-स्वभाव व पदार्थ हैं वह भी ईश्वर हमें प्राप्त कराये। महर्षि दयानन्द के अनुसार प्रार्थना करने से पूर्व व प्रार्थना करते समय हमें अपने आचरण व व्यवहार को प्रार्थना के अनुरूप बनाना चाहिये और उसकी प्राप्ति के लिए अधिकाधिक पुरूषार्थ करना चाहिये। पात्रता होने पर ही ईश्वर उसे पूरी करता है। यह बात अनेक उदाहरणों से सत्य पाई जाती है। जिस व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव कल्याणप्रद हों तो वह तो सोने में सुहागा ही कहा जायेगा। जिस प्रकार से हमारे समाज में यथा राजा तथा प्रजा की कहावत प्रसिद्ध है उसी प्रकार से “यथा ईश प्रार्थना तथा जीवन” देखने में आता है। हम समझते हैं कि इस प्रार्थना से जीवन में इच्छित धर्म-सम्मत लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द के समय में वेद लुप्त प्रायः हो चुके थे। इसके साथ सत्य वेदार्थ तो कहीं उपलब्ध होता ही नहीं था। स्वामी दयानन्द ने अपने गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा व स्वयं के पुरूषार्थ एवं सच्ची ईश-निष्ठा से वेदों को न केवल प्राप्त ही किया अपितु लोकभाषा हिन्दी में उनके सत्य अर्थ करके साधारण मानव को वेद से जोड़कर एक ऐसा यशस्वी कार्य किया जो उनसे पूर्व 1.96 अरब वर्षों के इतिहास में नहीं हुआ था। आज साधारण हिन्दी जानने वार्ला व्यक्ति भी चारों वेदों का अध्ययन कर वेदों का सत्यार्थ जान सकता है और जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में अग्रसर हो सकता है। प्रार्थना का यह मन्त्र गायत्री मन्त्र की तरह समान रूप से उपयोगी है। गायत्री मन्त्र का सबसे पहले हिन्दी में वेदार्थ करने का श्रेय भी महर्षि दयानन्द को प्राप्त है जो उन्होंने सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में किया है।
इस प्रार्थना मन्त्र का पूरी सजगता से अर्थ सहित पाठ व जप करने से मनोविज्ञान के अनुसार यथा भावना तथा जीवन जैसा लाभ होता है। जीवन में अधिकांश दुःख छू-मन्तर हो जाते हैं। सुखी जीवन का यह मन्त्र एक सबल आधार माना जा सकता है। हमारा अनुमान व कुछ अनुभव भी है कि नियमित इस मन्त्र का अर्थ सहित पाठ करने से जीवन को सुखी व स्वस्थ व उन्नत बनाया जा सकता है। इन लाभों के साथ ही इस मन्त्र से उपासक को सतत प्रेरणा मिलती है और वह वेदाध्ययन, शास्त्राध्ययन, योग, उपासना, विद्वानों का संगतिकरण, परोपकार, सेवा, अग्निहोत्र-यज्ञ, उपदेश-प्रवचन-प्रचार करके अपना व दूसरों का कल्याण कर सकता है। यह वेद मन्त्र सचमुच का पारसमणि है जिसका अर्थ सहित पाठ करने से मनुष्य जो चाहे उसे वह पात्र बनकर प्राप्त कर सकता है। यह मन्त्र स्वर्ण आदि रत्नों से भी मूल्यवान है जिससे हमें मृत्यु आदि के भय से मुक्ति मिल सकती है, इसका उदाहरण महर्षि दयानन्द स्वयं थे। इस मन्त्र का वेदों से चयन कर इसके वेदार्थ सहित मानवजाति को उपलब्ध कराने के लिए महर्षि दयानन्द सारी मानव जाति के सम्माननीय महापुरूष हैं। इस वेद मन्त्र को सभी अपनायें और इससे लाभ उठाये, इन्हीं शब्दों के साथ्य लेख को विराम देते हैं।
-मनमोहन कुमार आर्य