सामाजिक

उड़ने से पहले कटी काका की पतंग

मकर संक्रांति मेरे पसंदीदा त्यौहारों में से एक है। इस दिन मैं नहाने की छुट्टी करता हूं और पूरा दिन छत पर बिताता हूं। तब मैं पूरे परिवार का पहला व्यक्ति होता हूं जो सबसे पहले दिन की शुरुआत करता है। वह दिन ढेर सारे पतंगों और ‘वो काटा, वो मारा’ के शोर में बीतता है। इसके अलावा मैं मकर संक्रांति से जुड़े रहस्यों के बारे में बहुत कम जानता हूं। यह एक संयोग ही है कि मेरे जीवन में मकर संक्रांति से जुड़ी कई घटनाएं हैं जो इस दिन को और मजेदार बनाती हैं। साल 1997 की मकर संक्रांति इस मामले में अपवाद है, क्योंकि उस दिन मां ने मेरी पिटाई की थी। इसके अलावा ज्यादातर संक्रांतियां बहुत अच्छी बीतीं। यहां मैं आपको इस दिन से जुड़ी कुछ खास घटनाएं बताने जा रहा हूं। जरा गौर से सुनिए…

लौटके … घर को आए

मेरे एक काका हैं जिन्हें पतंगबाजी का बेहद शौक है। हर साल रामलीला, रावण दहन और फाग गाने में भी उनकी भूमिका सराहनीय होती है। एक बार काका ने प्रतिज्ञा की कि इस बार वे गांव में सबसे ज्यादा पतंग काटेंगे। इसके लिए उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से रणनीति बनाई। शहर से महंगा धागा मंगवाया गया। रात को पुराने घर की ट्यूबलाइट फोड़ी गई। कई जगहों से बल्ब और बोतलें जमा की गईं। कांच की पिसाई में मैं काका का भागीदार बना। उनके हुक्म देने भर की देर थी कि आटा, ग्वारपाठा, धागा, चरखी, कांच और दूसरे सभी सामान तत्काल हाजिर किए गए। तभी एक समस्या आ गई। मौहल्ले में इतनी जगह नहीं थी कि पूरा धागा यहां तैयार कर लिया जाए। ऊपर से बड़े-बुजुर्गों की डांट का भी अंदेशा था। लिहाजा हमने खेत में जाने का फैसला किया। पूरी टीम जयघोष के साथ खेत की ओर रवाना हुई। काका हमारी मंडली के सर्वमान्य मुखिया थे। खेत पहुंचने के बाद आग जलाई गई और मसाला तैयार किया गया। अगले दिन की कल्पना कर हम खासे उत्साहित थे। हम मान चुके थे कि इतने खतरनाक मांझे का सामना करना कोई हंसी-दिल्लगी न होगी। जो भी हमसे टकराने की भूल करेगा, वह खुद मिट्टी में मिल जाएगा।

धागा पूरे खेत में फैलाया गया। एक छोर खेजड़ी के तने से तो दूसरा काफी दूर बबूल की शाखा पर टांगा गया। पूरे खेत में धागे का जाल बिछाया गया। इधर मसाला तैयार था। काका ने मिश्रण से धागे को पोतना शुरू किया। ऊपर से कांच की परत चढ़ाई गई। घंटे भर बाद कड़क मांझा तैयार था। अब तक हमारा जोश सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। अब किसी भी मांझे से डरने की जरूरत नहीं थी। हमारी विजय सुनिश्चित थी। मैंने काका को मांझा चरखी से लपेटने का सुझाव दिया, तो वे बोले- अभी इसमें थोड़ी नमी है। कुछ देर और सूखने दो। आग जल रही है, इसलिए चाय का बर्तन चढ़ाओ। आज मौसम काफी ठंडा है। काका के हुक्म का पालन किया गया और चाय तैयार की गई। सब गर्मागर्म चाय की चुस्कियां ले रहे थे और अगले दिन की रणनीति बना रहे थे। तभी हमें कुछ दूर कुत्तों के भोंकने की आवाज सुनाई दी। मालूम हुआ कि वहां नीलगाय आ गई थीं। खेत के मालिक के वफादार कुत्ते उन्हें वहां से खदेड़ रहे थे। कोई और उपाय न देख नीलगायों ने हमारे खेत की ओर रुख किया और सरपट दौड़ लगाई। नीलगाय आगे और कुत्ते उनके पीछे। … इस बीच वह सब हुआ जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। नीलगाय और कुत्तों ने हमारे खेत में प्रवेश किया और जो मांझा सूख रहा था उसे अपने पैरों से लपेट कर ले गए। घटना स्थल पर जब हम पहुंचे तो वहां धागों के टुकड़े पड़े थे। सर्वनाश हो चुका था। कोई और उपाय न देख हम खाली चरखी लेकर घर लौटे।

उनकी शहादत को सलाम

अगर मानवता का इतिहास कभी ईमानदारी से लिखा गया तो इस घटना पर एक अध्याय लिखा जा सकता है, क्योंकि इसी दिन 15 कुत्ते शहीद हुए थे। उनकी शहादत के लिए एक अंकल जिम्मेदार थे जिन्हें शिकार और घुड़सवारी का शौक था। उनके दादा फौजी थे, इसलिए वे भी फौज में भर्ती होने का सपना देखा करते थे। वे कई बार भर्तियों में गए लेकिन हर बार असफलता ही हाथ लगी। असल में उनका कद बहुत छोटा था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक दिन उन्होंने किसान बनने फैसला किया। उन्हें इस बात का बहुत अफसोस था कि उन्होंने कभी शिकार नहीं किया। मकर संक्रांति से एक दिन पहले उन्हें खबर मिली कि गांव के तालाब का पानी पीकर एक कुत्ता पागल हो गया है, तो वे अपनी बंदूक लेकर उस कुत्ते को खोजने लगे। आखिरकार वह उन्हें दिखाई दिया और अंकल के अचूक निशाने का शिकार बन गया। उस रात उनके मन में खयाल आया कि तालाब का पानी पीकर गांव के दूसरे कुत्ते भी पागल हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो हालात काबू से बाहर हो जाएंगे। दूसरे दिन वे अपनी बंदूक लेकर निकले और जहां कहीं कोई कुत्ता मिला उसे गोली मार दी। शाम तक वे इसी मिशन में लगे रहे। रात को चौपाल पर उन्होंने गिनती कर बताया कि अब तक 15 कुत्तों को उड़ा दिया गया है। उन्हें इस बात का दुख था लेकिन वे गांव की सुरक्षा को भी जरूरी मानते थे। अब वे गर्व से खुद का परिचय शिकारी के तौर पर दे सकते थे।

तब पतंगों का मौसम जा चुका था

यह घटना साल 2009 की मकर संक्रांति की है। उस रात जब मैं लाइब्रेरी में भारत का नक्शा देख रहा था, तो किसी ने दरवाजा खटखटाया। वे हमारे गांव के एक गणमान्य व्यक्ति थे। उन्होंने मुझे उसी वक्त अपने घर चलने को कहा, क्योंकि वे संक्रांति के अवसर पर पूरे गांव में मिठाई बांटना चाहते थे। मिठाई का सामान, हलवाई और सब इंतजाम हो चुके थे। बस उन लोगों की कसर बाकी थी जो काम में हाथ बंटा सकें। उन्होंने मेरे अलावा कुछ और दोस्तों को भी साथ चलने के लिए मना लिया। घर पहुंचते ही उत्साह के साथ तैयारियां शुरू की गईं। वह रात बहुत ठंडी थी। वहीं गांव से बिजली भी गायब थी।

हलवाई अंकल पतंगबाजी के बड़े शौकीन थे। उन्होंने एक से बढ़कर मांझे और पतंग का जखीरा जमा कर रखा था। कुछ देर बाद उन्होंने मुझे घी का पैकेट और एक ब्लेड लाने के लिए कहा। दोनों चीजें मैंने उन्हें लाकर दे दीं। बिजली का नामोनिशान नहीं था, तो उन्होंने लालटेन की धुंधली रोशनी में पैकेट को ब्लेड से काटना शुरू किया। ब्लेड की धार तेज थी। ऊपर से घना अंधेरा। कड़क सर्दी में उन्हें कुछ मालूम न हुआ और उन्होंने पैकेट के साथ ही अपनी हथेली भी काट दी। बाद में दर्द का एहसास होने पर उन्हें पूरे घटनाक्रम की जानकारी हुई। लिहाजा कड़ाह-भट्ठी छोड़कर वे वैद्यजी के पास भागे और पूरे हाथ में पट्टी बंधाकर लौटे। उन्होंने काम करने से असमर्थता जताई और घर लौट गए। उस रात कोई मिठाई नहीं बनी। ठीक होने में उन्हें पूरा एक हफ्ता लगा। तब तक पतंगों का मौसम जा चुका था।

— राजीव शर्मा
संचालक
गांव का गुरुकुल

राजीव शर्मा

संचालक, गांव का गुरुकुल ganvkagurukul.blogspot.com

One thought on “उड़ने से पहले कटी काका की पतंग

  • विजय कुमार सिंघल

    हा…हा…हा… बहुत रोचक संस्मरण !

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