कौन हो तुम ….
मैं जानता हूँ तुझे
तू आज का इन्सान है
तू सोचता कुछ और है
तेरे दिल में कुछ और है
तू कहता कुछ और है
और लिखता कुछ और है
आखिर तू भी तो मजबूर है
आज की दुनियाँ में
हर अंदाज़ में
हर बात में
स्वार्थ ही तो राज़ है
तू उजालों में रहता है
अंधेरों को फैलाता है
अनजाने में हर कोई फिर भी
तेरे ही गुण गाता है
तू बददुआ है
मेरे समाज के गलीचे की
जो समय की धूल में
बहुत तर बतर है
झाडूं तो धूल
मुझ पे गिरेगी
इसपर चलूँ तो
मिट्टी गलीचे पे और चढ़ेगी
उधेङूँ तो समाज टूट जायेगा
क्यों की सिर्फ़ धागा मात्र रह जायेगा
इस ज़र ज़र गलीचे को
फिर पींजना होगा
सब पाप धूल में उड़ जाएँगे
कताई और बुनाई में
कई जनम बीत जाएँगे
मगर फिर से एक नये
समाज बनाने के
ख़वाब मिल जाएँगे
पर इस पुराने गलीचे को
कौन उधेड़ पायेगा
क्यों कि तू आज का इन्सान है …
……..इंतज़ार
वाह वाह ! बहुत सुन्दर !!
विजय जी धन्यवाद पसंदगी के लिये …सादर
कविता अच्छे लगी। धन्यवाद।
Man Mohan जी आभार आप का