यह कैसी समाज सेवा
देश का तो पता नहीं पर सुना है हमारे शहर आगरा में ही कईngo हैं, फिर भी इतने गरीब सड़को पर नंगधडंग वह भी ठण्ड में रहते है भला कैसे-क्यों …रह रह सवाल मन में गूंज जाता है …सुना है दान दाता खूब कपड़े=लत्ते, पूड़ी सब्जी अनाथालय दान दे आते है ….हमने तो यह भी सुना है कि उनकी कोठरी कपड़ो से भरी होती है …वह जरूरत मंद को नहीं देते क्या ….
हमे भी आफर आया एक बहुत पहले कि “दस हजार” देकर हम उपसमिति खोल सकते है और सदस्य बनाने का चालीस परसेंट हम मेन संस्था को दें ….जब पैसे देने है तो फिर समाज सेवा कैसी ….हमे लगा जो सदस्य बनते होंगे वह सेवा के लिय पैसे देते होंगे पर उप्पर तक पहुँचाना फिर कैसे साठ परसेंट में सेवा …दिमाक का दही हो गया …आप सब भी दिमाक लगाइए जरा और समझाइये …..हम तो सड़क पर दिखने वाले या मजदूरो को कपड़े दे देते थे जो घर में बच्चो को नहीं होते …पर अब सामने सड़क पर दीखते नहीं दीखते है तो लेते नहीं और जहाँ दीखते है हम लेके कपड़े चलते नहीं ….|देने में भी डरते होगें न शायद कि किसे दें कौन लेगा या नहीं … तभी तो ngo का आसान रास्ता चुनते है|
दान दाता की है भरमार
ngoउगे जैसे खरपतवार
ठण्ड में सिकुड़ते देख लोग
दुःख होता मन को अपार| सविता मिश्रा
बहुत सही कहा बहिन जी. आज कल समाज सेवा के नाम पर मेवा चरने वाले लोग बहुत हैं.
मेरा एक सुझाव है कि आपके पास और पड़ोसियों के पास जो पुराने कपडे वगैरह हों, उनको एक जगह एकत्र कर लें. फिर आप उन्हें किसी संघ वाले स्वयंसेवक को बुलाकर दे दें. वह उनको संघ कार्यालय में पहुंचा देगा, जहाँ से वे वनवासी कल्याण आश्रम को भेज दिए जायेंगे. तब वे कपडे वनवासी समाज के काम आएंगे. यह सही जगह दान पहुँचाने का सही तरीका है. वनवासी कल्याण आश्रम को दिए गए प्रत्येक पैसे का सदुपयोग वनवासियों के लिए ही किया जाता है.
वैसे आप किसी दिन अपनी गाड़ी में कपडे रखकर शाम ८-९ बजे निकलें और सडकों पर या मंदिरों के आसपास पड़े हुए भिखारियों को बाँट दें. यह भी एक तरीका है.
सादर शुक्रिया भैया …हम ज्यादातर बाँट ही देते है कभी घर बनाने वाले मजदुर कभी पुताई करने वालो में कभी कूड़े बीनने वालो में …पर कभी कभी ये गरीब हमसे ज्यादा स्वाभिमानी निकलते है अतः कपड़े फेंक चल देते है
सविता जी , आप ने सही ही लिखा है . आप को शाएद गिआत नहीं होगा कि यहाँ से और अम्रीका कैनेडा ऑस्ट्रेलिया से इतना कपडा और और भी बहुत चीज़ें जाती हैं कि आप सोच भी नहीं सकते लेकिन हमें पता नहीं इंडिया जा कर कहाँ गुम हो जाता है . मुझे तो यही समझ आती है कि यह भी कोई ngo ही होगी जो मिलिंज्ज़ ऑफ रुपीज़ का कारोबार कर रही होगी .
भाई साहब, मुझे भी बाज़ार में ठेलों पर पुराने कपडे बिकते हुए दिखाई देते हैं. वे अधिक पुराने भी नहीं होते. लगता है कि विदेशो से आने वाले अच्छे कपडे ही धोकर बेचे जाते हैं. यह मानवता के नाम पर कलंक है.
हमने तो एक दूकान देखि भैया और हमारे यह कहने पर कि ये तो पहने से लग रहें है उसने अपने मुहं से कहा की विदेशो से आने वाले कपड़े है धुल्धाल के तैयार बेचने को
भैया हमने भी सुना है कि वहा से आये कपड़े यहाँ पर ठेलों क्या दुकानों में धडल्ले से बिकते है …हम भारतीय कुछ ज्यादा ही मनिमाइन्डेड है ….और दुसरो को उल्लू बना मरा हुआ चूहा भी बेच लें ये कपड़े क्या चीज है