कहानी

शरीफों का मुहल्‍ला

जाड़े की धूप में बैठकर गप्‍पें हॉकी जा रही थीं। चाय व समोसे के सहारे वे बातें कर रहे थे। ‘’भई श्रीवास्‍तव इधर आना जरा।’’ एक आवाज गॅूजी।

‘’नहीं यार हम यहीं ठीक हैं,’’ श्रीवास्‍तव चाय के आखिरी घॅूट को गले तले उतारते हुए बोला,’’फार फरॉम दी मैडिंग क्राउड।’’ लोगों को याद आया कि वह अंग्रेजी में एम.ए. भी है। पर फिलहाल क्‍लर्की कर रहा था।

बात यह थी कि श्रीवास्‍तव गुप्‍ता के साथ झुण्‍ड से कुछ फासले पर बैठा था। यह फासला उसने जानबूझ कर चुना था। वह गुप्‍ता को कुछ ऐसी बातें सुनाना चाहता था जिसके योग्‍य वह झुण्‍ड को नहीं समझता था।

’’तो तुम बिल्‍कुल श्‍योर हो?’’ गुप्‍ता ने पूछा ’’हॉ यार हन्‍ड्रेड परसेन्‍ट श्‍योर। अब क्‍या कागज पर लिखकर दॅू। कमबख्‍त ये लोग जबसे मुहल्‍ले में आए हैं यहॉ की हवा ही खराब हो गयी है।’’

‘पर कुछ भी कहो लड़की है मजेदार।’’’ गुप्‍ता ने चुटकी ली। इस पर श्रीवास्‍तव गला फाड़कर हॅसा। गुप्‍ता का घर उस लड़की के बिल्‍कुल बगल में था परन्‍तु वह इस बात पर पछता रहा था कि श्रीवास्‍तव का ज्ञान उससे ज्‍यादा है। वह भी क्‍या करे। घर-गृहस्‍थी से फुरसत मिले तब तो इधर-उधर ताक-झाक करे।

वैसे भी उस घर के लोगों से मुहल्‍ले की महिलाऍ भी अप्रसन्‍न रहती थीं। मुहल्‍ले की पंचायत एवं परनिन्‍दा में कभी भी मॉ-बेटी ने रुचि नहीं ली थी। अचार बनाने की विधि या स्‍वेटर के नमूने पर चर्चा तो दूर की बात थी। और तो और एक बार श्रीवास्‍तव की स्‍त्री को साफ कह दिया कि वह दूसरों की निन्‍दा उससे न करे। इस अशिष्‍टता पर कौन अप्रसन्‍न न होगा।

तार पर गीले कपड़े फैलाने के लिए लड़की बाहर निकली। दो-चार जोड़ी उत्‍सुक निगाहों की उपेक्षा करके वह वापस अन्‍दर चली गयी।

’’देखा न उसे।’’ निगाहों ने आपस में बातें की। हॉ यार। सच कहते थे….क्‍या खूब है।

श्रीवास्‍तव को कुछ काम था। वह मण्‍डली से उठकर सीधे घर चला गया। पत्‍नी के बाजार जाने के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए वह ऑफिस की फाइलों में डूब गया। दफ्तर से वह फाइलें यहॉ भी ले आया था। यह प्रमोशन जो भी कराए वह कम है। तभी आहट से उसकी तन्‍द्रा भंग हुई। पड़ोसी का लड़का था। बिन मॉ का बेटा। बाप के भरोसे था।

’’अंकल सातवीं क्‍लास की किताबें आपके पास हैं? ’’ बारह-तेरह साल का बालक पूछ रहा था।

’’नहीं यार’’, श्रीवास्‍तव झॅुझला उठा, ’’तुम भी क्‍या… ।’’ वह गुस्‍से में कुछ और भी कहने जा रहा था लेकिन फिर रुक गया। काम के वक्‍त कोई डिस्‍ट्रब करे तो किसे अच्‍छा लगेगा।

पड़ोसी अग्रवाल की स्‍त्री दो साल पहले मर चुकी थी। वह उसे बेहद चाहता था। तब से अपने बेटे की जिम्‍मेवारी वह अकेले उठा रहा था। वैसे उसने एक आया रखी थी जिस पर मुहल्‍ले में तरह-तरह की चर्चाऍ व्‍याप्‍त थीं। भला इतने बड़े बच्‍चे को सॅभालने के लिए आया का क्‍या काम? यह तो उसकी अपनी आवश्‍यकताऍ होगीं। वह लोगों से बहुत कम मिलता-जुलता था पर सामने पड़ने पर नमस्‍कार जरुर करता था। उसका लड़का सारे मुहल्‍ले का चक्‍कर काटता रहता था। बेचारा बिन मौ का बच्‍चा। सब उसे तरस भरी द्दष्टि से देखते। पर मौका पाकर उसके घर के अन्‍दर क्‍या हो रहा है इसकी जानकारी जरुर लेना चाहते।

पता चला कि वह लड़का दो-तीन और घरों में किताबों की खातिर घूमा। पर विफलता मिली। क्‍या उसका बाप उसके लिए किताबें नहीं खरीद सकता? क्‍या पता वह आर्थिक कठिनाईयों में हो। खैर वह जाने। इन सब परायी बातों में कौन सर खपाता है। वह भी तब जबकि एक मसालेदार विषय सामने हो।

मालूम हुआ कि लड़की कॉलेज में पढ़ाती भी है। क्‍या पढ़ाती होगी भला। युवकों ने एक स्‍वर से वोट दिया। वह पढ़ाने के लिए थोड़े न है। वह तो देखने के लिए है।

’’सुना तुम लोगों ने! एक महत्‍वपूर्ण सूचना आयी।’’ क्‍या! उत्‍सुक निगाहों ने पूछा। ’’वह लड़की खुद गई थी अग्रवाल के घर किताब पहॅुचाने।’’ ऐसी बेहयाई! शरीफों का मुहल्‍ला ही नहीं रहा। कह रही थी कि किसी बच्‍चे को किताबों की जरुरत है तो पड़ोस में बेकार पड़े रहने से क्‍या फायदा। सातवीं क्‍लास की किताबें।

’’तो इस बच्‍चे के बहाने अब सब कुछ होगा।’’ एक वृद्ध ने आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा। बाकी लोग शर्म और लज्‍जा से अपना सर झुका लेते हैं।

मनीष कुमार सिंह

जन्मइ 16 अगस्तm,1968 को पटना के निकट खगौल (बिहार) में हुआ। प्राइमरी के बाद की शिक्षा इलाहाबाद में। भारत सरकार, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय में प्रथम श्रेणी अधिकारी। पहली कहानी 1987 में ‘नैतिकता का पुजारी’ लिखी। विभिन्नथ पत्र-पत्रिकाओं यथा-हंस,कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्या,साक्षात्काौर,पाखी,दैनिक भास्कओर, नयी दुनिया, नवनीत, शुभ तारिका, अक्षरपर्व,लमही, कथाक्रम, परिकथा, शब्द्योग, ‍इत्यांदि में कहानियॉ प्रकाशित। पॉच कहानी-संग्रह ‘आखिरकार’(2009),’धर्मसंकट’(2009), ‘अतीतजीवी’(2011),‘वामन अवतार’(2013) और ‘आत्मविश्वास’ (2014) प्रकाशित। पता- एफ-2, 4/273, वैशाली, गाजियाबाद, उत्तवर प्रदेश। पिन-201010 मोबाइल: 09868140022 ईमेल: [email protected]

4 thoughts on “शरीफों का मुहल्‍ला

  • विजय कुमार सिंघल

    यह कहानी शरीफ कहलाने वाले लोगों की गलीज मानसिकता को बखूबी उजागर कर देती है. बधाई !

    • मनीष कुमार सिंह

      आपको कहानी पसंदआयी यह जानकर अच्‍छा लगा।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी लगी .

    • मनीष कुमार सिंह

      धन्‍यवाद।

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