मैं क्यों लिखता हूं?
सुबह का समय था। मैं अपने घर के आंगन में बैठा हुआ था। सूर्य की किरणें जैसे ही चेहरे पर पड़तीं तो कुछ अजीब सा महसूस होता। तभी मन में विचारों का ज्वार-भाटा सा उत्पन्न हो जाता। हवा के तेज झोंके मेरे तन को थपथपाकर चले जाते। मेरे दायें हाथ में एक कलम जिसे अंगुलियों के माध्यम से घुमाये जा रहा था। बायें हाथ में मोटी सी एक डायरी, जिसके आधे पेज मेरे द्वारा लिखी गयी कहानियों, लेखों और कुछ कविताओं से भरे हुए थे। हवा के झोंकों के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। यही सब क्रियायें अभी जारी थीं। ‘कलम ही लेखक की जिंदगी होती है’ यह बात उन लोगों को राज नहीं आती, जो आलोचक बनकर मेरे सम्मुख आ जाते और मेरे द्वारा लिखी गयी सामग्री पर विभिन्न प्रकार की आलोचनायें करते।
अचानक हवा का तेज झोंका आया। डायरी जमीन पर जा गिरी। कुछ पेज मुख्य दरवाजे पर उड़कर चले गये। उन्हें उठाने की खातिर मैं उनकी ओर लपका। पेज तो उठा लिये, परन्तु सामने क्या देखता हूं कि हमारे पड़ोसी अनुपम जी आ पहुंचे। शायद टहलकर आ रहे थे। उन्हें प्रणाम करने वाली मुद्रा में आया ही था कि उन्होंने मेरे सामने सवालों की झड़ी लगा दी। सवाल भी कुछ अटपटे से थे। सवाल थे- तुम क्यों लिखते हो? यूं समय बरबाद करने से क्या फायदा? तुम लिखना छोड़ क्यों नहीं देते?
इन सवालों के जवाब जहां संभव हुआ तलाश किया परन्तु निराशा ही हाथ लगी। अंदर ही अंदर मैं इतना आहत हुआ कि मैंने लिखना ही छोड़ दिया अर्थात् कलम से रिश्ता ही तोड़ दिया।
समय बीता। एक दिन… एक सप्ताह… एक महीना। अब चिड़चिड़ापन सा हो गया था मेरे स्वभाव में। लग रहा था- मानो, सब मुझ पर हंस रहे हों। सब कुछ होने के बावजूद में तनहा हो गया। बात यहां तक आ पहुंची कि मुझे जानने वाला शायद ही कोई बचा हो, जिसने मुझे ‘पागल’ न कहा हो।
एक दिन यूं ही शाम के समय आंगन में बैठा हुआ था। कुछ लिखने का मन किया। सभी से नजरें बचाकर छत पर आ बैठा और एक लेख लिखा। फिर कुछ दिन तक ऐसा ही चला।
अब क्या देखता हूं कि मैं प्रसन्नचित्त रहने लगा। लग रहा था मानो मैं अपनी दुनिया में वापस आ गया हूं। लेखन में मेरी रुचि पहले से ज्यादा बढ़ गयी अब मैं यह भली-भांति समझ गया था कि कलम और मेरा रिश्ता ठीक उसी प्रकार का है जैसे आत्मा-परमात्मा। आत्मा के बिना भला शरीर बेजान ही तो हुआ। अब मैं खुश था क्योंकि मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर था कि ‘मैं क्यों लिखता हूं?’