कविता

हमारा शरीर

क्यूं नश्वर हो जाता है शरीर
जिससे हम इतना प्यार करते है
बन जाते है वहां फकीर
जहां हम नाज करते है
कितना सभांला …
कितनी देखभाल की
कितना सवारां
क्या चाल ढाल थी
क्यूं बिखर जाती है तकदीर
जिससे हम इतना प्यार करते है
क्यू मिटती है वो लकीर
जिस पर हम नाज करते है
सब विध्वंस हो जाता है
आत्मा छूट जाने के बाद
मात्र अंश रह जाता है
सबकुछ लूट जाने के बाद
क्यूं अधीर हो जाते है
जिससे हम इतना प्यार करते है

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

One thought on “हमारा शरीर

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता ! कुछ दार्शनिकता का प्रभाव भी है.

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