आर्य समाज और इसके पतितोद्धार कार्य की एक सर्वोत्तम प्रेरणाप्रद घटना
पराधीन भारत में एक गुजराती जन्मना व कर्मणा ब्राह्मण महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के काकड़वाड़ी स्थान पर प्रथम आर्य समाज की स्थापना विगत 5,000 वर्षों में एक सर्वतोमहान क्रान्ति के सूत्रपात का ऐतिहासिक दिवस है। हमें देश में ऐसी कोई संस्था या आन्दोलन विगत 5,000 वर्षों में दिखाई नहीं देता जिसने प्राणीमात्र की समस्याओं के मूल स्वरूप व उनके हितों को गम्भीरता से समझा हो जो हमारे देश में विद्यमान रही हैं। महर्षि दयानन्द और आर्य समाज ने देश की छोटी व बड़ी सभी समस्याओं को समझा ही नहीं अपितु इनके समाधान का सुस्पष्ट विधान भी प्रस्तुत किया। आर्य समाज के इस प्राणीमात्र के हितकारी कार्यों का प्रायः सभी मत-मतान्तरों व इतर समाकालीन व भावी संगठनों ने अपने अज्ञान व निहित स्वार्थों के कारण विरोध ही किया। आज भी स्थिति यही है। आर्य समाज की विचारधारा का आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित होने के कारण, जो कि पूर्णरूपेण सत्य पर स्थित है, इस कारण यह संस्था अपने गुणों, ईश्वर की कृपा और इसके निष्ठावान सेनानियों के तप व त्याग के कारण फलती-फूलती आ रही है।
आज कई क्षेत्रों में देश ने आशातीत सफलतायें प्राप्त की हैं। इस स्थिति में यह भी सत्य है कि धार्मिक जगत में हम शताब्दियों पूर्व जहां थे शायद उससे भी पीछे गये हैं। इसका कारण है कि अवैज्ञानिक व अन्धविश्वासों पर आधारित मतों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। ऐसा लगता है कि आज आधुनिक काल में भी अधिकांश लोग जिनमें उच्च शिक्षित लोग भी सम्मिलित है, धर्म के वास्तविक अर्थ व महत्व से अपरिचित हैं या फिर वह अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहते और अनावश्यक विरोघ करते हैं। महर्षि दयानन्द ने उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आर्य समाज की स्थापना कर जो समग्र सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक वैचारिक क्रान्ति की थी उसे हम वेदों पर आधारित सर्वांगीण क्रान्ति का नाम दे सकते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य तो देश व संसार से सभी प्रकार के अज्ञान को मिटाना था जो कि उन्नति में सबसे बड़ा बाधक होता है। अज्ञान मिटाने से सभी प्रकार के अंधविश्वासों व कुरीतियों पर स्वमेव विराम लगता है। आज हमारे पास धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्य सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित पूर्ण ज्ञान उपलब्ध है।
यह ज्ञान महाभारत काल व उसके कुछ वर्षों बाद विलुप्त हो गया था जो महर्षि दयानन्द के प्रयासों एवं उनके द्वारा स्थापित आन्दोलनात्मक संगठन आर्य समाज के त्याग व तपस्या तथा बलिदान की भावनाओं के कारण आज सर्वत्र विद्यमान है। महर्षि दयानन्द की सबसे बड़ी खोज यह थी कि क्या ईश्वर ने सृष्टि के बनाने के बाद कोई ज्ञान मनुष्यों के हितार्थ दिया था या नहीं? महर्षि दयानन्द की खोज व अन्वेषण से यह सिद्ध हुआ कि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से आदिकाल व भावी पीढि़यों के लिए चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। वेद क्या हैं? वेद मनुष्य को अपना जीवन ज्ञान-विज्ञान के आधार पर व्यतीत करने वाली सब सत्य मान्यताओं एवं सिद्धान्ताओं का समुच्चय व संहितायें हैं। वेदों का अनुयायी व जानकार ही सच्चा जीवन व्यतीत करता व कर सकता है। अन्य बन्धु जो वेद के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उनका जीवन परमार्थ के नाममात्र तथा स्वार्थ पर ही अवलम्बित होता है। यदि कोई वेदों का जानकार भी स्वार्थ में फंस कर बुरा काम करता है तो उसमें वेद का कसूर नहीं है अपितु उस व्यक्ति की अपनी कमियां हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर विश्व के मनुष्य समाज का जीवन सफल व सुखमय बनाने के लिए मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलितज्योतिष, वेदविरूद्ध ईश्वर उपासना-पूजा पद्धति का विरोध, छुआछूत का विरोध, शिक्षा का स्त्री व शूद्रों सहित सबको समान अधिकार का समर्थन, सती प्रथा-बेमेल विवाह का विरोध तथा गुण-कर्म-स्वभावानुसार उचित आयु में युवक-युवतियों के विवाह आदि का प्रचार किया। विधवा विवाह का भी अनेक परिस्थितियों एवं आपद-धर्म के रूप में समर्थन किया। उन्होंने सर्वप्रथम दलितोद्धार व पतितोद्धार की मजबूत नींव भी डाली। इस दिशा में आर्य समाज ने जो कार्य किया है वह अन्य किसी ने नही किया है।
महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की केवल स्थापना ही नहीं की अपितु उन्होंने वेद के आधार पर मानव जाति की समग्र उन्नति का प्रयास अपने सदुपदेशों, प्रवचनों व व्याख्यानों, शास्त्रार्थों तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों के लेखन व प्रकाशन द्वारा किया। वह प्रातः 3 बजे ही निद्रा त्याग कर उठ जाते थे और अपनी वेद सम्मत दिनचर्या आरम्भ कर देते थे। दिन का एक-एक क्षण वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में लगाते थे और रात्रि 10 बजे शयन करते थे। उनका शयन भी एक प्रकार का ईश्वर का ध्यान ही हुआ करता था। उनकी वेशभूषा में एकमात्र एक कौपीन होता था। दिसम्बर-जनवरी-फरवरी की शीत व शिशिर ऋतु में भी वह बिना छत के किसी नदी के किराने सिरहाने ईंटे लगाकर या फिर अन्यत्र एकान्त स्थान पर रहा करते थे। उनके जैसा तप, त्याग व पुरूषार्थ इतिहास में प्रसिद्ध किसी महापुरूष मे नहीं पाया जाता। वह अपूर्व ऐतिहासिक महापुरूष थे तथा उनकी अपने गुणों में किसी महापुरूष से समानता नहीं है। इस प्रकार से एक दिन के 24 घंटों में से उन्होंने 18 घंटे काम कर पुरूषार्थ की पराकाष्ठा का कीर्तिमान स्थापित किया। उन्होने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना से 30 अक्तूबर, 1883 को अपने देहत्याग-मृत्यु पर्यन्त के 8 वर्ष 6-7 महीनों में अभूतपूर्व कार्य किये। वह सत्य व ज्ञान के प्रचारार्थ देश के अधिकांश भागों में पदयात्रा व उन दिनों के असुविधापूर्ण साधनों द्वारा पहुंचे और लोगों को अपनी वाणी से सत्य के मूलस्वरूप से परिचित कराया जिससे समाज के धार्मिक दृष्टि से जागृत व निःस्वार्थ भावना के लोग उनके अनुयायी ही नहीं बने अपितु उन्होंने नाना विध देश और समाज की सेवा की।
दलितों एवं पतितों के उद्धार के लिए आर्य समाज ने उल्लेखनीय सेवा की है जो कि इतिहास की वस्तु है। उनसे पूर्व जिन स्त्री व शूद्रों को वेद का शब्द बोलने पर जघन्य दण्ड दिया जाता था, आर्य समाज के द्वारा उनको वेदों का ऐसा विद्वान बनाया गया जिनके समकक्ष विद्वान महाभारत काल के बाद स्वयं को सनातनी कहने वाले पौराणिक बन्धु स्वयं में ही न तो उत्पन्न कर सके और न ही उनकी विचारधारा व मान्यताओं के आधार पर ऐसा होना सम्भव है। इस प्रसंग में हम आर्य समाज से जुड़ी पतितोद्धार की एक प्रेरणादायक घटना प्रस्तुत करते हैं।
सन् 1964 में आर्य जगत के अबोहर-पंजाब के प्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु शोलापुर से आर्य समाज, यादगिरी-गुलबर्गा के निमन्त्रण पर इसके रजत जयन्ती समारोह में भाग लेने पहुंचे। यादगिरी पहुंच कर आप श्री रामचन्द्र जी वर्मा प्रधान, आर्य समाज से मिलने सुरपुर जाने वाली बस में सवार हुए। यह बस यात्रियों से पूरी तरह से भरी हुई थी जिसमें खड़ा होना भी कठिन था। बस में एक विचित्र घटना घटी जिसका वर्णन जिज्ञासुजी ने अपने संस्मरणो में किया है। जिज्ञासु जी को किसी ने पुकारा, “पण्डितजी ! आईये, यहां बैठिये।“ हैदराबाद में आर्य समाज के विद्वानों को पण्डितजी कहकर ही पुकारने की परम्परा है। जिज्ञासु जी ने बस में चारों ओर देखा, परन्तु उसमें कोई भी आर्य विद्वान दिखाई नहीं दिया। आवाज दोबारा सुनाई दी। अब उन्होंने देखा कि एक युवक उन्हें बुला रहा है। वह उसके समीप गये। उस अज्ञात युवक की सज्जनता देखकर जिज्ञासुजी आश्चर्य में पड़ गये। अपनी सीट छोड़ते हुए, उसने जिज्ञासुजी को बैठने के लिए कहा। जिज्ञासु जी ने उसका धन्यवाद किया और उसे अपनी सीट पर ही बैठे रहने के लिए कहा। वह उस युवक को पहचानते नहीं थे। उसका धन्यवाद करना और सीट न लेना ही उस समय उनका कर्तव्य था जो कि उन्होंने किया। युवक जिज्ञासु जी की स्थिति को समझ गया। उसने कहा, “आप तो मुझे नहीं जानते परन्तु मैं आपको जानता हूं। आप पहले भी हमारे नगर के आर्यसमाज के प्रधान श्री रामचन्द्र जी वर्मा के पास आये थे, तब मैंने आपको देखा था और आपके प्रवचन सुने थे।“ उस भरी बस में एक और बात कह कर उसने जिज्ञासु जी व बस के यात्रियों को चैंका दिया। वह युवक बोला, “मैं वैश्या का पुत्र हूं। हमारे नगर में देवदासियों की कन्याएं वेश्या बनती हैं। वर्मा जी की कृपा दृष्टि मुझ पर पड़ी। आपने मुझे प्रेरित किया, सभ्भाला और पढ़ने की प्रेरणा दी। मैं उनकी कृपा से अध्यापक बन गया। मेरा परिवार अब उस कीचड़ वा दलदल से निकल गया है। मेरी बहिनों के भी विवाह हो गये। यह सब आपके रामचन्द्र जी वर्मा की कृपा का फल है।“
जिज्ञासु जी उस युवक की भरी बस में कही इन बातों को सुनकर व उसके साहस को देखकर भौचक्के रह गये। कोई व्यक्ति कभी अपनी कमजोरी का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं करता? जिज्ञासु जी लिखते हैं कि “उसकी बातें सुनकर मेरा सीना गर्व से फूल गया कि मैं वेदोद्धारक, देश सुधारक और बाल ब्रह्मचारी ऋषि दयानन्द का शिष्य हूं जिसने प्राणवीर पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी से लेकर श्री रामचन्द्र वर्मा तक सैकड़ों दिलचले व दीन सेवक पैदा किये। श्री रामचन्द्र जी वर्मा ने उसको पढ़ने की ही प्रेरणा नहीं दी, उसे रामचन्द्र जी आदि सज्जनों के सहयोग से सर्विस भी मिल गई। उस युवक की बहिनों का भी उद्धार हो गया। पतितोद्धार की तो मैंने अनेक कहानियां सुनीं व पढ़ी हैं परन्तु बस में घटी इस घटना सदृश कोई घटना कभी सुनने पढ़ने को नहीं मिली। किसी पतित का बहिष्कार व तिरस्कार तो हर कोई कर सकता है परन्तु गिरे हुओं को उठाना तो कोई विरले मनुष्य ही कर सकते हैं। इसी का नाम परोपकार है। यही मनुजता है। यही धर्म का सार है।“
इस एक घटना से ही आर्य समाज के अन्य देश-समाज हितकारी कार्यों का अनुमान किया जा सकता है। हम संक्षेप में यह भी बताना चाहते हैं कि समय-समय आर्य पर समाज में मुस्लिम मत के लोग भी शामिल हुए और आर्य समाज में अपना उच्च स्थान बनाया। इन विभूतियों में स्वामी विज्ञानानन्द जी और स्वामी सत्यपति जी का नाम लिया जा सकता है। आर्य समाज के गुरूकुलों में दलित वर्ग के बड़ी संख्या में लोगों ने शिक्षा पाई और अनेक वेदो के विद्वान, वेदों के भाष्यकार, भजनोपदेशक व आर्य समाज के अधिकारी व प्रचारक बने। हमारी मित्रमण्डली में भी अनेक मित्र दलित परिवारों से रहे हैं व हैं जिनका सामाजिक स्तर काफी उन्नत हुआ। दलित-पतितोद्धार के साथ आर्य समाज ने समाज के अनेक व्यक्तियों को फर्श से उठाकर अर्श पर पहुंचाया है। किसी गांव में एक भेड़-बकरी चराने वाले बालक को गुरूकुल में पढ़ाकर उसे न केवल विद्वान ही बनाया अपितु वह आर्यों की शिरोमणि सभा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली के प्रधान भी बने। संन्यास लेकर वह सभी के पूज्य भी बने। आज पौराणिकों में संन्यास का अधिकार केवल ब्राह्मण जन्मना लोगों को ही है जबकि आर्य समाज में कोई भी योग्य विद्वान संन्यास ग्रहण कर समाज व देश सेवा कर सकता है। इस दृष्टि से भी आर्य समाज सच्चा पारस मणि पत्थर सिद्ध होता है जो साधारण अशिक्षित व संस्कारहीन लोगों को भी महनीय-स्वर्णमय जीवन का धनी बना देता है।
लेख को विराम देते हुए हम पाठकों से जीवन की उच्चाईंयों को प्राप्त करने के लिए आर्य समाज का साहित्य मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, महर्षि दयानन्द व स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन चरित और आर्य समाज का इतिहास पढ़ने की प्रेरणा करेंगे। आर्य समाज के विचारों को अपनाकर ही देश का कल्याण व उद्धार हो सकता है। इसके लिए हमें वेदों का अध्ययन कर वेदानुसार ही अपना आचरण बनाना होगा। ऐसा करके ही देश राम-राज्य बन सकता है। अन्य कोई मार्ग देश को सुदृण व अखण्ड बनने तथा उन्नति पर ले जाने नहीं है। वैदिक राज्य ही सुराज व राम-राज्य से अलंकृत हो सकता है।
-मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा संस्मरण ! ऐसी घटनाओं को और अधिक सामने लाना चाहिए.
मुझे इस प्रेरणादायक घटना ने ही इस लेख को लिखने के लिए विवश किया। आपकी सहानुभूति एवं प्रेरक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।