कविता : बाबुल की बगिया की कली
बाबुल की बगिया में जब तू , बनके कली खिली,
तुमको क्या मालूम कि, उनको कितनी खुशी मिली ।
उस बाबुल को मार के ठोकर, घर से भाग जाती हो,
जिसका प्यारा हाथ पकड़ कर, तुम पहली बार चली ॥
तूने निष्ठुर बन भाई की, राखी को कैसे भुलाया,
घर से भागते वक़्त माँ का आँचल याद न आया ?
तेरे गम में बाप हलक से, कौर निगल ना पाया,
अपने स्वार्थ के खातिर, तूने घर में मातम फैलाया ॥
वो प्रेमी भी क्या प्रेमी, जो तुम्हें भागने को उकसाये,
वो दोस्त भी क्या दोस्त, जो तेरे यौवन पे ललचाये ।
ऐसे तन के लोभी तुझको, कभी भी सुख ना देंगे,
उलटे तुझसे ही तेरा, सुख चैन सभी हर लेंगे ॥
सुख देने वालो को यदि, तुम दुःख दे जाओगी,
तो तुम भी अपने जीवन में, सुख कहाँ से पाओगी?
अगर माँ बाप को अपने, तुम ठुकरा कर जाओगी,
तो जीवन के हर मोड पर, ठोकर ही खाओगी ॥
जो – जो भी गई भागकर, ठोकर खाती है,
अपनी गलती पर, रो-रोकर अश्क बहाती है ।
एक ही किचन में, मुर्गी के संग साग पकाती है,
हुईं भयानक भूल, सोचकर अब पछताती है ॥
जिंदगी में हर पल तू, रहना सदा ही जिन्दा,
तेरे कारण माँ बाप को, ना होना पड़े शर्मिन्दा ।
यदि भाग गई घर से तो, वे जीते जी मर जाएंगे,
तू उनकी बेटी है यह, सोच – सोच पछताएँगे।
मयूर जसवानी
मैं श्री विजय सिंघल जी के विचारों का समर्थन करता हूँ। मेरे भी यही विचार हैं। कविता सामयिक, प्रासंगिक, अविवाहित लड़कियों के लिए विचारणीय, मार्गदर्शक एवं अनुकरणीय है। इस प्रशंसित रचना के लिए लेखक महोदय को मेरा हार्दिक धन्यवाद।
Man mohan kumar arya ji…
Thank you so much kavita aapko achi lagi aur aapme tippni bhi khub ki hai isiliye.
Shukriya.
बहुत सुन्दर कविता मयूर जी. काश भारतीय लड़कियां इसे समझ सकें.
Vijay Kumar Sighal ji..
Aap ko to shat: shat: naman ..
Aur han..
Jis din ladkiyan yeh soch ke samj ke kadam uthayengi to humare desh me se kai dushkarm ki ghatnayen band ho jayengi.
Thanks.