लघुकथा

लघुकथा- “कामवाली”

सुबह-सुबह मम्मी-पापा  में  फिर झगडा शुरू हो गया था। मम्मी रसोईघर में बरतनों की जोर जोर से उठापटक के साथ-साथ बडबडाए भी जा रही थी, ”सुबह-सुबह उठो, बच्चों को उठाओ, स्कूल के लिए तैयार करो, नाश्ता बनाओ, स्कूल भेजो, फिर घर की साफ सफाई में लग जाओ, इनसान ना हों जैसे कोई मशीन हों।यह भी कोई जिन्दगी है? मुझसे नहीं होता यह सब, जल्दी ही कोई कामवाली नौकरानी ढूंढ कर लाओ ।”

दो दिन बाद ही पापा ने आफिस से आकर बताया कि ‘कामवाली मिल गयी है, कल से काम पर आ जायेगी, पगार की बात अपने हिसाब से कर लेना। कोई चिक -चिक बाजी मत करना, बहुत मुश्किल से मिली है।’

मम्मी ने बडे ही सहज भाव से कहा, “अब मुझे  कामवाली की जरुरत नहीं, कुछ देर पहले ही …..अम्मा जी का फोन आया था कि वो कल आ रही हैं एक महीने  के लिए….।” पापा और मैं एक-दूसरे  का मुंह देखते  रह गये।

— सुरेखा शर्मा ‘शान्ति’

सुरेखा शर्मा

सुरेखा शर्मा(पूर्व हिन्दी/संस्कृत विभाग) एम.ए.बी.एड.(हिन्दी साहित्य) ६३९/१०-ए सेक्टर गुडगाँव-१२२००१. email. [email protected]

2 thoughts on “लघुकथा- “कामवाली”

  • उपासना सियाग

    ओह्ह !!

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघु कथा. आपने ‘आधुनिक’ बहुओं की क्षुद्र मानसिकता को निर्ममता से प्रकट कर दिया है.

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