गीतिका
ज़िंदगी की राह में, हम तो अकेले रह गए।
कुछ कदम साथी चले, फिर राह में बिछड़ गए॥
दोष उनका था नही, वो तो मेरे साथी बने।
कुछ कर्म ही ऐसे थे मेरे, छोडकर वो सब गए॥
दोस्त न कहना मुझे अब, मैं बड़ा खुदगर्ज हूँ।
मतलबी हूँ मैं बहुत, ऐसा वो मुझको कह गए॥
मैं न ऐसा था कभी, जैसा की समझे सारे लोग।
कुछ अकेलापन था ऐसा, हम तो ऐसे बन गए॥
अब तमन्ना सिर्फ ये है, छूटे ये जीवन का रोग।
साथी मेरे माफ करना, दिन मेरे अब लद गए॥
दिनेश”कुशभुवनपुरी”
अच्छी ग़ज़ल !