देवी वन्दना
अरुणोदय की तुम हो दामिनी,
हो खण्ड खण्ड प्रभावनी।
नभ से धरा तक तुम ही हो,
देवी तुम ही जग धारिणी ॥
चंचल चपल कामायनी,
प्रदीप्त ज्योत लुभावनी।
तम में प्रकाश तुम ही हो ,
देवी भागीरथी, जग तारिणी॥
तुम पुष्प पुष्प विहारिणी,
तुम सप्त स्वर रागिनी।
वीणा की तान तुम ही हो,
हे शारदे ज्ञानदायिनी॥
तम की विकट संहारिनी,
शुभता में मंगलदायिनी।
कली औ कठोर तुम ही हो,
दुर्गे शिवे शक्तिदायिनी ॥
नवरत्न में स्वर्ण आभामयी,
तुम ही समृद्धि ,वरदायिनी।
जग का विकास तुम ही हो,
कमलासिनी नारायणी॥
कण कण अखंड आभामयी,
त्रण त्रण नवीन शोभायनी।
आदि अनंत तुम ही हो,
तुम अनन्त विस्तारिणी॥
हे शारदे मम ह्रदय बसो,
हे वत्सले भवतारिणी।
बढ़िया ! देवी स्तुति अच्छी है.
मैंने भी एक ‘महरी वंदना’ लिखी है. कहें तो प्रस्तुत करूँ?
sure sir..