‘वेद में जीवात्मा विषयक गूढ रहस्यों का प्रतिपादन’
स्वाध्याय की प्रवृत्ति मनुष्य को नानाविध लाभ पहुंचाती है। देश में अनेक विद्वान हो गये हैं जिन्होंने अनेकानेक विषयों पर जीवन के लिए लाभदायक ज्ञान अपने ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। श्री पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ भी वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व ग्रन्थकार थे। आपने वेदों पर अनेक प्रमाणित ग्रन्थ लिखे है। ‘वैदिक इतिहासार्थ निर्णय’उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसका प्रथम संस्करण सन् 1909 में प्रकाशित हुआ था। इस वृहत् ग्रन्थ में विद्वान लेखक ने अनेक स्थानों पर वेद की बहुमूल्य ज्ञानवर्धक, जीवनोपयोगी मान्यताओं व सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है। आज हम उन्हीं के कुछ विचारों को इस लेख में प्रस्तुत कर रहें हैं।
श्री शिवशंकर शर्मा ने लिखा है कि दुःख के बाद अवश्य सुख प्राप्त होता है। दुःख के दिन बहुत लम्बे नहीं होते हैं। जो अपने अपराध के लिए पश्चाताप करता है, उसका अवश्य उद्धार होता है। महा क्लेश में भी व्याकुल न होके ईश्वर की शरण की चिन्ता रखनी चाहिये। कभी किसी क्लेश को दुरतिक्रम न समझना चाहिये। महासागर में भी डूबते हुए को बचा लेना ईश्वर के लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं। ऐसे समय में भी धैर्य को न छोडे़, ऋषिवत् ईश्वर की चिन्तन में परायण हो जायें। अपना अस्तित्व भूल अपने को ईश्वर के समीप समर्पित कर दे। वेद का जीव के विषय में कैसा आदर है, यह पता लगता है वेद की ऋचा ‘सोममिव स्रुवेण, हिरण्यस्येव कलशं निखातम्, अश्वं न गूढ़म्’से जिसके अनुसार सोम एक बहुत प्रिय वस्तु है। सुवर्ण एक सुन्दर, शुद्ध और बहु-मूल्य पदार्थ है। वेद इससे शिक्षा देता है कि जो कोई इस सोमवत् प्रिय जीवात्मा-वस्तु को बात-बात में मलिन किया करते हैं या अपने कम्र्मों से दूषित कर इसको दुःख में डालते हैं, वे ही यथार्थ में आत्मघाती हैं। जैसे यज्ञ में सोम को बड़ा आदर देतेे हैं तदवत् इस जीव का आदर करना चाहिये। शुभ कम्र्म में इसको लगा रखना भी इसका आदर है और दुष्कम्र्म में लगाना ही परम निरादर है। सुवर्णवत् जीवन को शुद्ध, दर्शनीय और बहुत मूल्यवान बनावें। जैसे बलिष्ठ अश्व के द्वारा कठिन पथ को सहजतया काटते हैं, बड़े-बड़े संग्राम जीतते हैं, वैसे इस प्राण की सहायता से मुनष्य कठिन जीवन मार्ग को तय कर सकता है। इत्यादि गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन वेदों में ईश्वर ने किया हैं।
श्री शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी ने इसी क्रम में लिखा है कि वेदों में वन्दन शब्द का प्रयोग जीवात्मा के लिए भी किया गया है। ‘वदि अभिवादनस्तुत्योः’, गर्भस्थ शिशु माता के गर्भ में जो ईश्वर से प्रार्थना करे उस प्राण-विशिष्ट जीवात्मा को वन्दन कहते हैं। माता का गर्भ-स्थान ही जीवात्मा के लिए कूप है। इससे इस जीव का कालचक्र उद्धार करता है अर्थात् 9-10 महीनों में गर्भस्थ शिशु का जन्म होता है। यही जीव = आत्मा बद्ध होकर शरीर छोड़ पुनः जन्म लेके अभिनव बनता है। यद्यपि इस जीवात्मा का शरीर ही वृद्ध वा युवा होता है स्वयं जीव सर्वदा समान रहता है, तथापि इस शरीरावस्था के कारण ही इसमें नवीनत्व आदि का आरोप होता है। जो ईश्वर की वन्दना करेगा, उसका अवश्य ही महाविपत्ति से भी उद्धार होगा। वह ईश्वर की कृपा से सदा अभिनव बना रहेगा। अन्यत्र लेखक ने लिखा है कि माता का गर्भ ही जीवात्मा की 10 महीनों की दुःखदायी जेल है जहां उसे घोर अन्धकार में बिना भोजन आदि के रहना पड़ता है और वहां रहते हुए वह हर क्षण ईश्वर से वहां के दुःखों से मुक्ति की प्रार्थना के साथ जन्म लेने के बाद ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित धर्मात्मा बनकर जीवन बिताने का आश्वासन देता है।
मनुष्य स्वयं अर्थात् अपनी जीवात्मा के गुणों से सर्वथा अनभिज्ञ है। आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने को नहीं जानता। सूर्य प्रकाशस्वरूप और तेजोमय है। जैसे सूर्य समस्त अन्धकार को क्षणमात्र में विनष्ट कर देता है और पृथिवी पर विविध प्रकार से लाभ पहुंचाता है, तदवत् यह जीवात्मा भी है। इसी आत्मा से सकल शास्त्र निकले हैं। इसी आत्मा से व्याकरण, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, ज्योतिष, छन्द और विविध काव्य निकले हैं। इसी से सहस्रशः कलाएं निकली हैं। इसी से रेखागणित, बीजगणित, भूविद्या, सर्वभूतविद्या, पदार्थविद्या, ओषधिविद्या, पर्वतविद्या, समुद्रविद्या, शरीरविद्या, पशुविद्या, मनोविज्ञान, भूगोलविज्ञान, खेगोलज्ञान इत्यादि कहां तक गिनावें, जो-जो विद्याएं पहली हैं, जो-जो अब हैं और जो-जो होंगी वे सब ही आत्मा से ही निकली हैं व आगे भी निकलेंगी। यद्यपि यह आत्मा आकृति में बहुत छोटा है, आंखों से दिखाई भी नहीं देता, तथापि इसमें पृथिवी समा जाती है। इसमें सब समुद्र अवकाश पा लेते हैं। हिमालय पर्वत भी एक कोने में आ जाता है। इसमें सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों का पता नहीं लगता है। हे मनुष्यो ! यह आत्मा आश्चर्य, अद्भुत, महाद्भुत पदार्थ है इसको जितना बढ़ाओगे उतना ही बढ़ता जायेगा और इसको जितना छोटा करते जाओगे उतना छोटा होता जायेगा। इसी आत्मा में सारी विद्या छिपी हुई है। मनन करने से निकल आती है। देखों, साक्षात् वेद भगवान इस जीवात्मा की सूर्य और कनक से उपमा देते हैं। क्या कहीं सूर्य छिप सकता है? परन्तु मेघ हमारी दृष्टि से उसको वंचित कर देता है, इसी प्रकार घोर पापरूप मेघ जब इस जीवात्मा पर आक्रमण करता है तो आत्मा दुःखित हो कांपने लगता है। हे मनुष्यों ! यह हमारी जीवात्मा सुवर्णवत् बहुमूल्य और दर्शनीय वस्तु है। इसको व्यर्थ न फेंको। इससे सुवर्णवत् अपने को भूषित करो, सौन्दर्य बढ़ाओ और इसी आत्मरूप सुवर्ण से परम धनाढ्य बनो। सूर्यवत् इसके द्वारा अज्ञानान्धकार को सर्वथा विनष्ट करो।
उपर्युक्त पंक्तियों में जीवात्मा के उज्जवल स्वरूप व क्षमताओं पर वैदिक विद्वान ने प्रकाश डाला है। हम लोग अपनी-अपनी आत्मा की शक्तियों को जानते ही नहीं है। विद्वान लेखक के विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर हम अपनी आत्मा को जानें व पहचानें तथा इसकी शक्तियों का पूर्ण विकास कर अपने जीवन को समाज व देश के लिए अधिकतम् उपयोगी बनायें जिससे हमारा व प्राणीमात्र का कल्याण हो। यही सन्देश वेद में दिया गया है। हम आशा करते है कि पाठक लेख में प्रस्तुत विचारों को उपयोगी पायेंगे।
-मनमोहन कुमार आर्य
लेख बहुत अच्छा लगा लेकिन जो शख्स वेदों को पड़ कर उसी के अनुसार चलता है वोह ही कुछ हासल कर सकता है वर्ना पड़ कर किताब को अलमारी में रख कर कुछ नहीं हासल हो सकता.
धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल जी, आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ. यदि कर्म या आचरण करने वाले को सत्य और असत्य का ज्ञान हो तो उसे अपने निजी ज्ञान के विरुद्ध आचरण करने में दुःख होता है। सत्य या धर्म विरुद्ध आचरण के ४ कारण बताएं गए है : १ अपने प्रयोजन की सिद्धि, २- हठ, ३ दुराग्रह और ४ अविद्यादि। स्वाध्याय से अविद्या घटती या कम होती है। प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद।
अच्छा लेख !