गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुम मेरी सांसों में समाए से लगते हो
फिर भी जाने क्यों मुझे पराए से लगते हो

घुली हुई है आँखों में मेरी जो इक तस्वीर
तुम उसी तस्वीर के हमसाये से लगते हो

जो ख्वाबो में मेरे नज़र आता था अकसर
तुम उन्हीं ख्वाबो से निकल आए से लगते हो

जो मेरी हर नादानी पे मुस्कुराता है मंद मंद
तुम मेरी उन नादानियों मैं समाए से लगते हो

आँखे मेरी समझती हैं तुम्हारे दिल का हाल
तुम मुझे अपने दिल में बसाए से लगते हो ।

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! बहुत बढ़िया ग़ज़ल !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी , काश मैं इसे अपने हार्मोनिअम से गा सकता अफ़सोस बोल नहीं सकता. मेरी मजबूरी पर भी कोई कविता या ग़ज़ल लिख ही डालो मेरी बहना .

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